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प्रेमी जी
श्री रामचन्द्र वर्मा
नैने पहले-पहल प्रेनीजी को उनी नम्य जाना था जब उन्होंने 'हिन्दी - गन्य- रत्नाकर का प्रकाशन प्रारम्भ किया था और उस नाता में पहले पुष्प के रूप में आचार्य द्विवेदी जी की स्वाधीनता प्रकाशित हुई थी । 'स्वावीनता' ने हिन्दी-जगत् को नृग्य कर लिया था। मैं भी उनी हिन्दी जगत् के एक कोने में बैठा हुआ मन ही मन प्रेमीजी व उन प्रयत्न की प्रशंखा करता था और अपने मन में इस कामना को पोप करता था कि हिन्दी में इस प्रकार की अनेक आदर्श पुन्नव नालाएँ प्रकाशित हो ।
जब अन्य-रलाकर से थोडे ही समय में कई अच्छे अच्छे राज्य मज न मे और उत्कृष्ट रूप में प्रकाशित हुए नब हिन्दी के बहुत से लेखक उसमें अपने ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए उनावले होने लगे। उन्हीं में मे में भी एक था, परायान्य-रत्नाकर से प्रकाशित होने के योग्य पुस्तक में लिख भी सकूंगा या नहीं ? बहुत-कुछ सोचविचार के बाद मैंने 'नेता और उसकी भावना के उपाय' नाम की एक छोटी पुस्तक लिखकर प्रेमीजी के पास भेजी । बन्दी ही प्रेनीजी की स्वीकृति आ गई और थोडे ही समय में पुस्तक छप भी गई। गन्ध- रत्नाकर ने अपनी पुस्तक प्रकाशित होने का मुझे गर्व ना हुआ । उसले भी बटकर ह इस बात का हुआ कि प्रेमीजी मरोसे नुयोग्य मोर सज्जन व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ ।
यह परिचय वर्षों तक दरावर वडना रहा, पर केवल पत्रव्यवहार के रूप में । वीरे-धीरे उनने प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करने की उत्सुक्ता मन में बढ़ने लगी। नोचता था कि कब अवनर मिले और कब प्रेमीजी ने भेंट हो । नयोग से वह अवसर भी का गया। जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। वही मैंने सुना कि प्रेमीजी नी आये हैं। मैं उनने मिलना चाहता था । अस्मात् एक दिन सवेरे उन मे भेंट हुई। वे नल पर नान करके तोड रहे थे और में स्नान करने जा रहा था । एक मित्र ने बतलाया कि यही प्रेनीजी है । में आगे बढकर उनने मिला । उन्हें अपना परिचय दिया, पर एक-दो बातें होकर रह गई । वे अपने राले चले गये और में पपने रान्ते । मैं अत्यन्त दुखी और निराग हुआ । जिन प्रेमीजी को ने अबतक बहुत ही सज्जन और महृदय समभ रहा था, वे इस पहली भेंट के समय मुझे नितान्त मौर सोजन्य-विहीन जान पडे । में मन में प्रन्न भी हुआ और प्ट भी । उनी रोर के कारण मैने उनसे फिर मिलने का प्रयत्न भी न किया । इम प्रकार पहली भेंट नितान्न निरामापूर्ण हुई । काशी लोडने पर चार-पांच दिन बाद प्रेमीजी का पत्र मिला। उनमें फिर वही भोजन्य और वही महृदयता मरी थी, जो पहले पत्र में रहा करती थी । यद्यपि मैं मोच चुका था कि अत्र उनने कोई विशेष सम्पर्क न करूंगा, पर उस पत्र का उत्तर देना ही पड़ा । फिर वही पत्र-व्यवहार चलने लगा। पर मेरी समझ में न आया कि आखिर नीजी किन तरह के आदमी है।
मन में आता भी कैसे ? प्रेमजी ये सतजुगी महापुरप और में या किंचित् कलजुगी । उनके सौजन्य पर नन्त्रता और आत्म-गोपन के जो बडे-बडे आवरण चढे हुए थे, उन्हें भेदकर उनके अन्तकरण में छिपी हुई महत्ता तक पहुँचना सहज नहीं या । इनके लिए कुछ अधिक घनिष्ट परिचय की आवश्यकता थी ।
कुछ दिनों बाद वह अवसर भी आ गया। मुझे नागरी प्रचारिणी सभा के एक आवश्यक कार्य के लिए पहले जयपुर और फिर बन्दई जाना पड़ा । जयपुर से बम्बई जाने के पहले मैंने प्रेमीजी को अपने बम्बई पहुंचने की सूचना दे दी थी, पर वह सूचना थी केवल औपचारिक । मैं अपने मित्र स्व० श्री मदनगोपाल जी गाडोदिया के यहाँ ठहरना चाहता था। मोत्रा या कि प्रेमीजी ने भी मित लूंगा । पर बम्बई पहुंचने पर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।