________________
पहली सन्धि
त्रिभुवनके लिए आधार स्तम्भ परमेष्ठी गुरुको नमन कर तथा शाखोंका अवगाहन कर कविके द्वारा रामकथा प्रारम्भ की जाती है।
[१] संसाररूपी समुद्रसे तारनेवाले आदि भट्टारक ऋषभ जिनको प्रणाम करता हूँ। दुर्जेय कामका दर्प हरनेवाले अजित जिनेश्वरको प्रणाम करता हूँ। त्रिलोक शिखरपर स्थित मोक्षपुर जानेवाले सम्भव स्वामीको प्रणाम करता हूँ| आठ कर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंको जीतनेवाले अभिनन्दन जिनको नमस्कार करता हूँ। महा कठिन पाँच महात्रतोंको धारण करनेवाले सुमति तीर्थकरको प्रणाम करता हूँ । संसारके लाख-लाख दुःखोंके ऋणका शोधन करनेवाले पमप्रभु जिनको प्रणाम करता हूँ। सुरवरोंमें श्रेष्ठ, आदरणीय सुपार्श्वको प्रणाम करता हूँ । भव्य जनरूपी पक्षियोंके लिए कल्पतरुके समान चन्द्रप्रमु गुरुको प्रणाम करता हूँ। जिनकी ध्वनि स्वर्गलोकतक उछलकर जाती है, ऐसे पुष्पदन्त. मुनिको प्रणाम करता हूँ। कल्याण ध्यान और ज्ञानके उद्गम स्वरूप, अष्ट शीतलनाथको प्रणाम करता हूँ। अत्यन्त महान् मोक्ष प्राप्त करनेवाले श्रेयान्साधिपको प्रणाम करता हूँ। जिनका केवलज्ञानरूपी चूड़ामणि चमक रहा है ऐसे वासुपूज्य मुनिको प्रणाम करता हूँ। परमागमोंका दिशाबोध देनेवाले विमल महाऋषिको प्रणाम करता हूँ। कल्याणके आगार अनन्तनाथ सहित आदरणीय धर्मनाथको प्रणाम करता हूँ। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथको प्रणाम करता हूँ जो तीनों ही तीनों लोकोंके परमेश्वर हैं।