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वईको गति प्रारम्भ किया जो नौ रसों और आठ भावोंसे युक्त था। फिसीने ध्वज-पताकाएँ उठा ली । किसीने बड़े-बड़े स्तोत्र प्रारम्भ कर दिये । किसीने मालतीकी माला ले ली जो परागसे परिपूर्ण और भ्रमरोंसे मुखरित थी। किसीने वेणु, किसीने वर वीणा ले ली। कोई वीणाके स्वरमें लीन हो गया ॥८॥
घत्ता-उस अवसर पर जिसे जो ज्ञात था, उसने उसका सम्पूर्ण प्रदर्शन किया। उन्हें त्रिभुवनका स्वामी समझकर सम ने अपना-अपना विज्ञान प्रकट किया ।।९।।
[५] पहला कलश देवेन्द्र ने लिया, दूसरा सानन्द अग्नि ने। तीसरा हर्षपूर्वक यमराज ने, चौथा नैऋत्य देव ने । पाँचा समर में समर्थ वरुण ने, छठा स्वयं पवनने अपने हाथ में लिया। सातवाँ कुबेरने बड़े स्वाभिमानसे लिया। ईशानने आठयों कलश लिया। नौवाँ धरणेन्द्र ने लिया, दसवाँ कलश 'चन्द्रने लिया । दूसरे-दूसरे कलश दूसरे-दूसरे देवोंने उठा लिये जिनकी संख्या एक लाख करोड़ अक्षौहिणीमें है। सुरवरोंकी लगातार कतार बनाकर, चारों समुद्रोंको लौंधकर, झीरमहासागरका क्षीर भरकर, तथा एकसे दूसरे को देते हुए ||१-८॥
घत्ता-देवोंने बहुत मंगल कलशों से जिनवरका अभिषेक किया, मानो नववर्षाकालमें मेघोंने महीधर का ही अभिषेक किया हो ||२||
[६] सुरवर श्रेष्ठ परम आदरणीय ऋषभ जिनका जय जय शब्दोंके साथ, मंगल-कलझोसे अभिषेक किया गया। इसके अनन्तर, शत्रुका नाश करनेवाला इन्द्र वनसूची लेकर जगन्नाथके दोनों कान छेद देता है और शीघ्र ही कुण्डल युगल उन्हें पहना देता है। सिरपर चूड़ामणि, वक्षस्थलपर हार, हाथमें कंगन, और कटितलमें कटिसूत्र। त्रिभुवन तिलक को तिलक लगाते हुए सहस्रनयनके मनमें आशंका हो गयी। फिर