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तेरहमी संधि
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फिर गद्गद स्थरमें अपनी जिल्हा करने सपा, "मेरे सामान दुनियामें कोई अज्ञानी नहीं है, जो सिंहके साथ क्रीड़ा करना चाहता है। मेरे समान दूसरा मन्दभाग्य नहीं है कि जो मैंने गुरुपर ही भयंकर उपसर्ग किया ॥१-९॥
पत्ता-उन त्रिभुवन स्वामीको छोड़कर मैं किसी औरको जो अपना सिरकमल नहीं झुकाया, ऐसे उस सम्यग्दर्शनरूपी वृक्षका परम फल प्राप्त कर लिया" ॥१०॥
[९] दस प्रकारके धर्मका पालन करनेवाले बालीकी वारबार प्रशंसा कर रावण वहाँ गया जहाँ भरतके द्वारा बनवाये गये जिनालय थे । कैलास पर्वतको कॅपानेवाले रात्रणने जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की, जो वनस्पतिकी तरह फल-फूलोंसे समृद्ध, महाअटवीकी तरह सावय (श्रावक और श्वापद पशु ) से घिरी हुई, विलासिनीकी तरह अत्यन्त उल्लाव ( उल्लाप =
आलाप से भरी हुई, खलकुट्टनीकी तरह पर बड़ धूव (मनुष्यों के द्वारा जिसमें धूप जलायी गयी, कुट्टनी पक्षमें, (नष्ट कर दी गयी धूतता जिसकी), समुद्रके भीतरकी तरह बहुत दीप (दीपक और द्वीप) बाली, नारायणकी मतिकी तरह पेल्लिय बलि (नैवेद्य और राजा बलि) से प्रेरित गजघटाकी तरह घण्टाओंसे मुखरित, साँपके फनकी तरह मणि और रलोंसे समुज्ज्वल, वेश्याके केशोंकी तरह स्नानसे चिासत, खिले हुए गुलाबकी तरह उत्कट गन्धसे युक्त थी। पूजा करनेके बाद रावणने अपना गान प्रारम्भ किया। वह गाम मुर्छना कम कम्प और त्रिगाम, पज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद इन सात स्वरोंसे युक्त था ॥१-२।।
घत्ता-मधुर स्थिर और लोगोंको बसमें करनेमें समर्थ अपनी वीणा से रावण ने मधुर गन्धर्व गान किया ॥१०॥