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सप्तरहमो संधि गन्धर्वोके साथ सरस्वती गान करे, अग्नि इजारों वस्त्र धोये, कुबेर अशेष कोशकी देखभाल करे, चन्द्र सदैव प्रकाश करे, दिवाकर आकाशमें धीरे-धीरे तपे, अमरराज नहानेका पानी भराये और मेघोंसे छिड़काव कराये।" सहस्रारने यह सब स्वीकार कर लिया, लंकानरेशने शकको मुक्त कर दिया ॥१-१०॥
घत्ता-अपना राज्य छोड़कर और अनन्या लेकर सहस्रार शाश्चत स्थानको चला गया और रावण जयश्रीरूपी वधूको अलंकृत कर अपने मुजस्तम्भोंसे उसका आलिंगन कर रहने लगा ॥१२॥ धनंजयके आश्रित, स्वयम्भूदेवकृत पद्मचरितमें राषण
विजय नामक १७वाँ पर्व पूरा हुआ।
अठारहवीं संधि युद्ध में इन्द्रका मान-मर्दन कर, सुमेरु पर्वतके शिखरोंकी प्रदक्षिणा कर, जब दशानन लौट रहा था तो उसने अनन्तरथके दर्शन किये।
[१] जिसमें दूर-दूर तक जिनको चन्दनाके शब्द उछल रहे हैं, ऐसे सुभद्र स्वर्णगिरिको देखकर, सुरवरोंसे अपनी सेवा करानेवाले रावणने मारीचसे पूछा, “योद्धाओंका संहार करनेचाले, प्रसिद्धनाम ससुर, वह क्या कोलाहल सुनाई दे रहा है ?" यह सुनकर समरधीर मारीच कहता है, "यह अनन्तवीर नामके मुनि है, अणरणसे उत्पन्न दशरथके भाई, जो सहस्रकिरणके स्नेहके कारण तपस्वी हो गये थे इन्हें केवलझान उत्पन्न हुआ है,