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अट्ठारहमी संधि वह यानोंके साथ ठेवागम दिखाई दे रहा है।" यह शब्द सुनकर निशाचरराज वहाँ गया जहाँ मुनिवरेन्द्र थे। प्रदक्षिणा, नमन और स्तुति कर वह वहाँ बैठ गया। उसने वहाँ लोगोंको अत ग्रहण करते हुए देखा ॥१-८ __ घत्ता-कोई महावत, और कोई अणुव्रत । कोई शिक्षाप्रत और गुणवत। कोई देखा गया दृढ सम्यक्त्व लेता हुआ। परन्तु रावणने एक भी व्रत'नहीं लिया ।
[२] तब धर्मरथ महामुनि वहाँ कहते है, "अरे रावण, मनुष्यत्व पाकर और यहाँ बैठकर मोहान्धकारसे छूट । मूर्ख रत्नाकरसे भी रत्न ग्रहण नहीं करता। अमृतालयसे अमृत क्यों नहीं लेता, एकाकी ऐसा बैठा है, जैसे काष्ठसे बना हो।" यह वचन सुनकर, रावण, स्तोत्रका उच्चारण करनेवाली वाणीमें बोला, "मैं आगको ढक सकता हूँ, शेषनागके फनसे मणि ग्रहण कर सकता हूँ, मन्दराचलको उखाड़ सकता हूँ, दसों दिशाओंको चूर-चूर कर सकता हूँ, हवाको पोटलीमें बाँध सकता हूँ, यममहिषपर चढ़ सकता हूँ, समुद्रका जल पी सकता हूँ, आशीविष सौंपको ला सकता हूँ ।।१-८।। ___घत्ता-युद्धमें इन्द्र को पकड़ सकता हूँ, चन्द्रमा और सूर्यकी प्रभा छीन सकता हूँ | धरती और आसमान एक कर सकता हूँ, परन्तु कठोर व्रत प्रण नहीं कर सकता" ॥९॥
[३] तब बहुत समय तक सोचनेके बाद, "लो, एक प्रत लेता हूँ" उसने कहा, "जो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी, उस पर-स्त्रीको मैं बलपूर्वक नहीं प्रण करूँगा।" यह कहकर वह अपने नगर चला गया और अपने अचल राज्यका उपभोग करने लगा। यहाँ भी 'महेन्द्र' नामका राजा अपनी इच्छाके अनुसार कामको भोग करता हुआ रहता था। उसकी हृदयदेगा नामकी सुन्दर पत्नी थी। उसकी अंजना सुन्दरी नामकी