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अरहरी सकि
पवनंजय जैसा पति मिला ।" यह सुनकर कोई दुर्मुख दुष्टबेशवाली अपना सिर पीटती हुई मिश्रकेशी बोली, "प्रभु विद्युत्प्रभ को छोड़कर, पवनंजयकी याद करने में कौन सा गुण है ? जो अन्तर गोपद और समुद्र में, जो जुगनू और सूर्यमें, जो अन्तर सिंह और गजमें, जो कामदेव और तीर्थकर में, जो अन्तर गरुड़ और महानागमें, जो वन और पर्वतराजमें, जो पुण्डरीक और चन्द्रमा है वही विद्युत्प्रभ और पवनंजय में है” ॥ १-८||
धत्ता- इन आलापोंसे पवनंजय कुपित हो गया, उसने अपने हाथ में तलवार निकाल ली और बोला, "बाहरी औरतों और वचनोंसे क्या शत्रु रक्षित हैं ? मैं दोनोंका सिर लेता हूँ" ॥९॥
[4] तब, कटु-अक्षरोंसे तिरस्कृत प्रहसितने पवनंजयका हाथ पकड़ लिया और कहा, "हे देव, जो असिवर गजोंके सिरोंके रत्नोंसे उज्ज्वल है, उसे इस प्रकार मैला क्यों करते हो. तुम्हें लज्जा आनी चाहिए कि तुम मूर्खकी तरह बोलते हो ।" वह बड़ी कठिनाई से उसे अपने आवासपर ले गया। उसकी रात दस वर्षके समान बीती । सवेरे अपनी हजारों किरण फैलाता हुआ सूर्य निकला। राजाने श्रेष्ठ लोगोंको बुलाया, भेरी बजा दी गयी। अंजनासुन्दरीके लिए तुरन्त कूच करवा दिया गया। परन्तु जाते हुए वह उन्मत्त हो गया। जैसे-जैसे वह एक पग चलता वैसे-वैसे उसका हृदय काँप उठता। उस अवसरपर बहुत से जानकार राजाओंने उसके हाथ-पैर पकड़कर ।। १-८।।
पत्ता - जबरदस्ती उसे मोड़ा। उसने भी अपने मनमें उपाय सोच लिया । "एक बार उसका पाणिग्रहण कर फिर बारह वर्ष के लिए छोड़ दूँगा” ॥९॥