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वोसमो संधि [२] यह सुनकर अतुल माहात्म्यवाले जलकान्तके पिता वरुणने तिरस्कारके स्वरमें कहा, "लंकाधिप तुम दूसरे सूर्य कुबेर और इन्द्रादि अमरों द्वारा जिता दिये गये हो, मैं वरुण हूँ, और तुम्हें वरुण फल दूंगा, तुम्हारे दसमुखोंकी आगको शान्त कर दूंगा।" तब रावणने उसे खूब झिड़का, “सुभटोंके बीच में कितना गरज रहा है, सामने आ, अपनी शक्ति समझ ले। सामान्य आबुध से ही युद्ध पर, मोहन, साम, बहन कादिमें समर्थ दिव्य अत्रोंसे आज कोई भी नहीं लड़ेगा।" यह कहकर वह वरुणसे भिड़ गया, मानो प्रह-समूह बालसूर्यसे भिड़ गया हो ॥१-८॥
घत्ता-नयरोंके शिर है, शूल जिसमें, ऐसी कम्पनशील और पवनसे आन्दोलित अपनी पूंछसे हनुमान वरुण कुमारीको घेरकर ऐसे पकड़ लिया जैसे त्रिभुवनके करोड़ों प्रदेशों को ।९||
[१०] अपने पुत्रों के बाँचे जानेसे दीन वरुणके हाथमें कोई अस्त्र नहीं आ रहा था। तब दशाननने आकाशमें उछलकर, युद्ध के प्रांगण में उस इन्द्रको पकड़ लिया। कोलाहल होने लगा, जयतूर्य बजने लगे, समुद्रके शब्दकी तरह तूर्य शब्द दूर-दूर तक गया। तबतक भानुकर्ण नू पुर सहित समूचे अन्तःपुरको ले आया, जो करधनी, हार और मालाओंसे ढका हुआ, गलित केशरकी कीचड़में निमग्न, भौरोंके झंकारोंसे मुखरित, अपने पतियोंके वियोगसे क्लान्त, आँसुओंसे धरती सींचता हुआ, काजलके मलसे मलिन मुख था । यह देखकर हर्षित शरीर रावणने कुम्भकर्णको निन्दा की॥१-८॥
पत्ता-कामिनीरूपी कमल वन, शुक-लताभषन मधुकरी कोयल और अलिकुल, ये कामदेवके प्रसिद्ध चिह्न है, इनका अनाकुल भावसे पालन होना चाहिए ॥॥