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एगुणवीसमो संधि [५] "लोगों में यह प्रसिद्ध है कि सासों और बहुओंका एक दुसरेके प्रति बैर अनादिनिबद्ध हैं। जिस दिन पति इस बातका विचार करेगा, उस दिन बहुत बुरा होगा।" लकिन मन्त्रीके इन वचनोंसे राजा प्रसन्न कीर्ति अपने मनमें क्रुद्ध हो उठा। वह बोला, "स्नेहहीन पत्नीसे क्या ? दात्रुको जाननेवाली कीर्तिसे क्या अलंकार-विहीन सुकचिकी कथासे क्या ? कलंक लगानेवाली लड़कीसे क्या ? घरमें अंजना, और युद्धमें पचनंजय, यहाँ गर्भका सम्बन्ध कैसा?" यह सुनकर एक नरने अंजना. का निवारण कर दिया और ढोल बजाकर निकाल दिया। यह भीषण वनमें घुसी। और अपनेको पीटती हुई जोर-जोरसे चिल्लायी, "हे विधाता, हे कृतान्त, तुमने यह क्या किया, तुमने निधि दिखाकर दोनों नेत्र हर लिये ।।१-९॥ - घसा- करण विलाप करती हुई म दोनोंने वन में किसको द्रवित नहीं किया, यहाँ तक कि स्वच्छन्द चरते हुए हरिणोंने भी मुँहका कौर छोड़ दिया ||१०||
[६] अंजना शोकातुर होकर बार-बार रोती है कि "ऐसी कोई भी नहीं, जो मेरे समान दुखकी भाजन हो । हताश सासने तो मुझे छोड़ा ही, परन्तु हे माँ, तुमने भी मुझे सहारा नहीं दिया, हे निष्ठुर भाई और पिता, तुम लोगोंने रोती हुई मुझे नगरसे कैसे निकाल दिया। अब कुलगृह, पतिगृह, पति भी सभीके मनोरथ पूरे हों।" गर्भवती बह जैसे-जैसे चलती चैसे-वैसे खूनका चूंट पीकर रह जाती। सुखोंसे परित्यक्त, प्यास और भूख से तिलमिलाती हुई वे दोनों वहाँ गयीं, जहाँ पयकगुहा थी। वह उन्होंने शुद्धमति महामनि आदरनीय अमितगति के दर्शन किये। आत्माके तपको करनेवाले जो योग्य और क्षमाशील थे | उस अवसरपर वे दोनों वहाँ पहुँची, मानो दुख और क्लेशसे वे सूख चुकी थीं ।।१-२।।