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अट्ठारहमो संधि
२१५ [२] तब उसने बड़ी कठिनाई और दुर्मनसे विवाह किया। उसने बारह वर्ष के लिए छोड़ दिया। स्वप्नमें भी न याद करता और न बात करता । जैसे-जैसे वह उसके द्वार तक नहीं जाता, वैसे-वैसे वह वेचारी खिन्न होती और छीजती। उसका हृदय विरहाग्निमें जलने लगा, मानो वह उसे आँसुओंके जलसे बुझाती। परिवारकी दीवालोंपर जितने चित्र थे, वे सब उसके विश्वासके धुएँसे मैले हो गये। ढीले आभूषण इस प्रकार गिर पड़ते, जैसे उसके स्नेहके खण्ड-खण्ड हो गिर रहे हों। रुधिर सूख गया। केवल चमड़ा और हलियौँ वची थीं। यह मालूम नहीं पड़ता था कि 'जीव है या नहीं। ठीक इसी अवसरपर सुरवररूपी कुरंगोंके लिए सिंहके समान दशाननने ॥१-८।। ___ घत्ता-जो दुर्मुख नामका दूत भेजा था, और जो समयसमयसे रहित है ( जिसका कोई समय निश्चित नहीं है }, ऐसा दूत आया। उसने कहा, "समरभेरी बज चुकी है, और रावण रथवरपर चढ़कर युद्ध में वरुणसे भिड़ गया है" ||२|
[१०] इसी बीच वरुणके पुत्रों, राजीव-पुण्डरीक आदिने युद्ध में अपने रथ आगे बढ़ाते हुए प्रवर खरदूषणको धरतीपर गिरा दिया। पवनगामी भी गये, उन्हें किसीने नहीं देखा,
और वरुणके साथ जलदुर्गमें प्रविष्ट हो गये । 'सालोपर हमला न हो' (यह सोचकर ) उन्मुक्त निशाचर-राज रावण भी यहाँ गया है । उसने समस्त द्वीप-द्वीपान्तरों के विद्याधरोंके लिए लेखपत्र भेजा है। एक लेख युद्ध-प्रांगणमें अजेय पवनंजयके लिए भी भेजा है। उस लेखपत्रको देखकर पवनंजयने, जरा मी खेद नहीं किया और सेनाके साथ कूच किया। अंजना द्वारपर कलश लेकर खड़ी थी। उसने उसे अपमानित किया, "हे दुष्ट स्त्री, हद ॥१-८॥