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कहारमो संधि
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सुन्दर कन्या थी । एक दिन गेंद खेलते हुए उसके स्तन देखकर राजा अपने मुँहपर कर-कमल रखकर रह गया। उसे चिन्ता उत्पन्न हुई कि मैं किसे कन्या हूँ, लो मैं कैलास पर्वत ले जाता हूँ। जहाँ सैकड़ों विद्याधर मिलते हैं, वहाँ कोई न कोई वर अवश्य होगा ।। १-८||
पत्ता - यह विचारकर जिन अष्टाहिकाके दिनोंमें राजा अष्टापद पर्वतपर गया और निकटके भागमें ठहर गया, मानो मन्दराचलके तोंपर तारागण हों ||२||
[ ४ ] यहाँ भी आदित्यपुरसे प्रह्लादराज अपनी पत्नी केतुमती के साथ आया और अपने विमान, सेना और परिवारके साथ, कुमार पवनंजय भी । उन्होंने एक जगह अपना तम्बू ताना, मानो वन्दनाभक्तिके लिए इन्द्र ही आया हो। और भी जो-जो आसन्नभव्य थे, वे सब विद्याधर वहाँ आकर मिले | पहले उन्होंने फागुन नन्दीश्वर त्रिलोकनाथ की अभिषेकपूजा की। दूसरे दिन सत्र नराधिपोंकी परस्परमें मित्रता हुई । प्रह्लादने मजाक करते हुए पूछा, "तुम्हारी कन्या हमारा पुत्र, हे राजन, विवाह क्यों नहीं कर देते ।" यह सुनकर प्रह्लाद राजने भी वचन दे दिया। सज्जनोंको इससे सन्तोष हुआ, परन्तु खल और दुर्जनों के मुख मैले हो गये ॥ १-२ ॥
घत्ता - " अंजना बहू, और वर— नेत्रोंको आनन्द देनेवाला वायुकुमार तीसरे दिन विवाह" यह घोषणा कर राजा अपनेअपने घर चले गये ||१०||
[५] इसी बीच में दुर्जेय और दुर्निवार कुमार पवनंजय कामातुर हो उठा। आनेवाले तीसरे दिन को भी वह सहन नहीं कर सका, किसी तरह विरहानलको शान्त करनेका प्रयत्न करता है। उसका चित्त धुआँता है, मुड़ता है, धकधक करता है, जैसे घरमें भीतर ही भीतर आग लगी हो । चाँदनी चन्द्र