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सत्तरहमी संधि पत्ता-दोनों घूमते हुए मदकल महागजोंके साथ इन्द्र और रावण ऐसे मालूम पड़ रहे थे, मानो भवरूपी भवनसे युक्त धरतीरूपी मुग्धा सागर और समुद्र के साथ घूम रही है ।।।।
[१७] त्रिजगभूषण महागजने ऐरावतको निरस्त्र कर दिया। निशाचर प्रसन्न हो गये। शत्रुसमूहका पतन हो गया। रावण नवयुवक और बलवान था जब कि इन्द्रकी वय
और तेज जा चुका था। खींचनेपर भी ऐरावत महागज हिल नहीं सका. गासने सौ बार उसे छुआ। गजने गजको और स्वामीने स्वामीको उठा लिया। चूमकर उसने वखसे उसे बाँध दिया। निशाचरोंकी सेनामें विजयकी घोषणा कर दी गयी। देवताओंने आकाशमें दुन्दुभि बजा दी। तबतक इन्द्रजीत जयन्तको अपनी बाहुओंसे बाँधकर ले आया, विषमशील सुग्रीव यमको, नल अनलको, नील अनिल को,खर-दूषण,चित्र-चित्रांगदको और अंग-अंगद सूर्य-चन्द्रको लेकर आ गये । निर्मीक मयने बृहस्पविको और मारीचने कुबेरको पकड़ लिया ॥१-२||
घसा-जिसने जिसपर आक्रमण किया, उसने उसको पकड़ लिया। इस प्रकार सैकड़ों प्रवर वन्दियोंको पकड़कर, इन्द्रके लिए भयंकर रावण अपने नगरके लिए उसी प्रकार गया, जिस प्रकार परमजिन महामदोंको जीतकर अजर-अमर पदको प्राप्त करते हैं ॥१॥
[१८] इन्द्रको लंका ले जानेपर, सहस्रारने जयश्रीके निवास राजा रावणसे प्रार्थना की, “यम, धनद और शक्रको फैपानेवाले रावण, मुझे पुत्रको भीख दो।" यह सुनकर देवोंको बाँधनेवाले रावणने कहा, "तुम्हारे हमारे बीच यह शर्त है कि यम तलवर ( कोतवाल) होकर नगरकी रक्षा करे, प्रभंजन हमारा आँगन साफ करे, वनस्पति धरपर पुष्पसमूह दे,