Book Title: Paumchariu Part 1
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 317
________________ २८५ सत्तरहमो संधि [१५] अग्निबाणके शान्त होनेपर भास्वरमुख इन्द्रने अन्धकारका बाण छोड़ा। उसने युद्धके प्रांगणमें अन्धकार फैला दिया, निशाचरोंकी मेनाको कुछ भी दिखाई नहीं देता, सेना अँभाई लेती, उसके अंग झुकने लगते, नींद आती, बेहोश होती, सोतो और स्वप्न देखती। अपनी सेनाको अवनत होते हुए देखकर, दशानन जलता हुआ दिनकर अक्ष छोड़ा। इन्द्रने राहु अन छोड़ा। रावण नागपाश अत्र चलाता है। हजारों बड़े-बड़े साँपोंसे डैसी गयी देवसेना प्राण लेकर भागने लगती है। इन्द्र गरुड़ अल चलाता है जो साँपोंके प्रवर शरजालको पराजित कर देता है। गरुड़ोंके पंखोंके पवनसे आन्दोलित धरती ऐसी मालूम होती है मानो वरकामिनी हिंडोलेमें बैठी हो पंखोंके पवनसे प्रतिहत महीधर दिशापथों और समुद्र सहित धरतीको नचाने लगे। ॥१-| घचा-तब शत्रुनाशक नारायण बाण छोड़कर रावण त्रिजगभूषण हाथीपर चढ़ गया और जहाँ ऐरावत महागज था, वहाँ जाकर इन्द्रसे भिड़ गया ॥१०॥ [१६] दोनों ही महागज अत्यन्त कृष्णशरीर और मतवाले थे, मानो खूब गरजते हुए, समान रूपसे उछलते हुए महामेघ हों। दोनों एक दूसरेके पास पहुंचे। दोनोंका शरीर मदजलसे सिक्त था, दोनोंके वक्ष और कन्धे विशाल थे, दोनोंसे मदकी धारा बह रही थी, दोनों पाषसको तरह जलकणोंसे युक्त थे, दोनों मदान्ध और निरंकुश थे, दोनोंके गण्डस्थल विशाल थे, दोनोंके गठित उज्ज्वल दाँत थे, दोनोंके नहीं थकनेवाले कर्णरूपी चामर लगातार भ्रमरोंको उड़ा रहे थे, दोनों उठी हुई सूहोंसे मयंकर थे, दोनोंके घण्टोंसे विशिष्ट ध्वनि हो रही थी । जैसे सुन्दर गीत पंकियों हों, दोनों महागज घूम रहे थे ॥१-८॥

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