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सत्तरहमो संधि हुए आँतोंसे शोभित घूम रहे हैं। कहींपर आहत विशाल छत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो यमके भोजनके लिए थाल दे दिये गये हों, कहींपर योद्धाओंके सिर लोट-पाट हो रहे हैं मानो बिना नालके कमल हों, कहींपर टूटे-फूटे रथचक्र पड़े हुए हैं, जैसे कलिकालके आसन बिछा दिये गये हों, कहींपर योद्धाके पास सियारन जाती है और 'हृदय नहीं है। यह कहकर चल देती है, कहींपर गीध धड़पर बैठा है, जैसे सुभटका नया शिर निकल आया हो, कहीपर गीध मनुष्यको नहीं खा सका, वह तीरों और चोंचोंमें भेद नहीं कर सका ।।१-९||
पत्ता-कहीपर मनुष्योंके धड़, हाथ और पैरोंसे समरभूमि इस प्रकार भयंकर हो उठी, मानो रसोइयोंने बहुत प्रकारसे यमके लिए रसोई मनायी हो ॥१०॥ . [१४] उस महा भयंकर युद्धमें, महोत्सव मनानेवाले लंकेश और देवेशने एक दूसरेको पुकारा,- "अरे-अरे शक्र-शक्र, चल, जिस तरह मालि का वध किया उसी तरह स्थित हो। मैं वही मुक्नभयंकर रावण हूँ, देवकुलके लिए यम और युद्धमें दुर्धर ।" यह सुनकर इन्द्र मुड़ा और तीरोंसे उसने आकाशको आच्छादित कर दिया। तब दशानन भी मत्सरसे भरकर उछला और उसने तीरोंसे शरजालके सौ टुकड़े कर दिये। इस बीच में प्रतिपक्षको नष्ट करनेवाले इन्द्रने आग्नेय वीर छोड़ा, वह धकधक करता धुआँ छोड़ता हुआ तथा चिह्नम्वज और छत्रोंसे लगता हुआ दौड़ा। जीवनकी आशंकासे युक्त, आगको लपटोंमें झुलसती हुई रावणकी सेना नष्ट होने लगी ॥१-८11
पत्ता-तब निशाचरोंके प्रमुख रावणने वारुण बाणसे आग्नेय तीरकी ज्वालाको शान्त कर दिया, जो दुष्टकी तरह . धूमिल शरीर और काले रंगको लेकर चला गया II