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तेरहमी संधि
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पापी और ढीठ खरदूषणको पकड़ो।" यह वचन सुनकर ससुर मयने लंकेश्वरको समझाया कि बहनोई के साथ क्या बैर ? यदि वह मारा जाता है तो इसमें तुम्हारी ही हानि है, शीघ्र ही बहन और बहनोईके घर चलें, क्रोध करके भी उसका तुम क्या कर लोगे ? ॥१-१०॥
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बताये वचन सुनकर रावणने अपने मनसे मत्सर निकाल दिया और चूड़ामणिका उपहार हाथमें देकर उसने इन्द्रजीतको बुलाकर भेजा ॥११॥
[१२] खरदूषण भी वहाँ आये और प्रिय शब्दों को नमस्कार किया। सुमीव भी मन्त्री और सेनाके साथ किष्किन्धा नगर चला गया। उसने शत्रुकी एक हजार अक्षौहिणी सेना सिद्ध कर ली । श्रेष्ठ नरोंकी भी इतनी ही संख्या उसके पास थी । रथ, तुरंग और गजराजोंका उसके पास अन्त नहीं था। उसने पवनगति से प्रस्थान किया । उसकी अग्रिम सेना रेवा और विन्ध्याचलके विशाल अन्तराल में ठहर गयी। इतनेमें सूर्यका अस्त हो गया, कि निशा पास ही अटवीमें व्याप्त हो गयी, दिव्य वस्त्रको धारण करती हुई । नक्षत्र और कुसुमके शेखरसे युक्त उसका सीमन्त (चोटी) था। कृत्तिकासे उसका गण्डवास अंकित था । शुक्र और बृहस्पति उसके कर्णावतंस थे, अन्धकार अंजन, शशधर स्वच्छतिलक, ज्योत्स्नाकी किरण परम्परा हारभार था । मानो सूर्य की दृष्टि बचाकर निशारूपी वधू निशाकरमें लीन हो गयी || १-२ ॥
उत्तम
धत्ता- दुश्शील स्वभाववाले दोनों ही स्वयं सुरतिका सुख भोगते हुए इस आशंकाके साथ सो रहे थे कि कहीं दिनकर उन्हें देख न ले || १० ॥
इस प्रकार धनंजय के आश्रित स्वयम्भू देवकृत पद्मचरित में कैलास उद्धरण नामका तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।