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सोलहमो संधि
२६१ घत्ता-चित्रांग कहता है, "नरकी क्या देवसे तुलना की जा सकती है जो सूर्यते भी नहीं देखा, वह भी क्या उसे दुर्लक्ष्य है ?" ||१०||
[१०] यह सुनकर रावण सन्तुष्ट हुआ। उसने कहा, "मैंने समझा था कोई कुदूत आया है, आप जैसे आज्ञाकारी है, वैसे ही यथार्थद्रष्टा हैं । आप निषिद्ध अर्थोंको भी विचार करनेकी क्षमता रखते हैं, वह इन्द्र धन्य है जिसके पास तुम-जैसा दूत हैं, जिसे पचीस गुण और ऋद्धि प्राप्त हैं, बताइए बताइए, किस लिए तुम्हें भेजा है।" तब हंसते हुए चित्रांगने कहा, "हे परमेश्वर, हमारा यही सुन्दर विचार है कि दोनों सन्धि कर, सुखसे जीवित रहे। रूपमें सुन्दर, रूपवती नामकी इन्द्रकी कन्यासे विवाह कर लंकानगरीमें विजययात्रा निकालें, मनुष्यकी लक्ष्मी चंचल होती हैं, उसकी क्या सीमा ?" ॥१-७॥
पत्ता-"यह हमारा वचन, आप इसको अपने मनमें थाह लें, जिस प्रकार कुसिद्धको मोक्ष सिद्ध नहीं होता, उसी प्रकार युद्धमें इन्द्रको नहीं जीता जा सकता" ||८||
[११] यह सुनकर शत्रुको सतानेवाले रावणने चित्रांगसे कहा, "विजयाध पर्वतकी श्रेणीपर जो पचास-साठ पुरवर है, वे सब मुझे देकर सन्धि कर लो, नहीं तो कल संग्राममें मरो।" यह सुनकर प्रहर्पितजंग चित्रांगने रावणसे कहा, "एक तो इन्द्र स्वयं उग्र है, दूसरे उसके पास रथनूपुर नामका दुर्ग है । वह तीन परिखाओं से घिरा हुआ है जो रत्नाकरके समान विशाल हैं, चार दिशाओं में चार परकोटे हैं, चार द्वारोंपर एक-एक हजार सैनिक हैं। अलवान् और भीषण यन्त्रोंकी एकएक अक्षौहिणी है ॥१-८॥