________________
पण्णरहमो संधि
धनकी तरह गतिशील हैं, कुट्टनीके वचनोंकी तरह कृत्रिम (था काले हैं, सज्जनो चिसको तरह भरे हुए हैं, भिखारीके धनकी तरह अच्छी तरह बँधे हुए हैं, सुकलनोंकी तरह दुलंघ्य हैं, डूबते हुओंके समान चेष्टाविहीन हैं, पानी छोड़ते हुए उर-कर-चरण-कर्ण-नेत्र और मुखवाले, श्रीका नाश करते हुए उन यन्त्रोंसे रोककर यह पानी छोड़ा गया है जो पूजाको बहाता हुआ आया" ॥१-८॥
पत्ता-यह सुनकर, 'पकड़ो', यह कहकर रावणने स्वयं अपने हाथमें तलवार ग्रहण कर ली, जो चन्द्रमाकी किरणकी तरह निर्मल एवं उज्यल ऐसी शोभित है मानो सुपात्रमें दिये गये दानका फल बढ़ गया हो ।
जलक्रीड़ामें कवि स्वयम्भूको, गोमकथामें चतुर्मुख देवको और भद्र कवि मत्स्यवेधमें आज भी कवि नहीं पा सकते ।
पन्द्रहवीं सन्धि दान से मदान्ध गन्धराज के साथ जिस प्रकार सिंह भिड़ जाता है, वैसे ही जगको कैंपानेवाला रावण सहनफिरणके साथ भिड़ गया था
[१] उसने अपने अनुचरों-वनोदर, मयर, महोदर, मारीच, मय सुत, सारण, इन्द्रकुमार, बनवाहन, हस्त, प्रहस्त, विभीषण, दोनों कुम्भकर्ण, खर, दूषण, चन्द्र, सुग्रीव, नल, नील और भी दूसरे निम्सीम बाहुबलवालोंको आदेश दिया । मत्सरसे हाथ मलते हुए भयंकर हथियारोंका समूह धारण करनेवाले वे उटे । युवतियोंसे घिरा हुआ सहस्रकिरण भी जल्दी-जल्दी पानीसे