________________
पण्णाहमो संधि [७] गुरुकी वन्दना करके मणिनिर्मित और शुभदर्शन आसन उन्हें दिये गये। विशुद्धमति मुनिश्रेष्ठ बोले, "लंकाधिपति, तुम सहस्रकिरणको छोड़ दो, यह सामान्य व्यक्ति नहीं, चरमशरीरी है, मेरा पुत्र और भन्यरूपी कमलोंके लिए सूर्य ।” यह सुनकर यमको कपानेवाले दशाननने प्रणाम करते हुए कहा, "मेरा इनके साथ किस बातका क्रोध ? केवल पूजाको लेकर हम दोनोंमें युद्ध हुआ, यह आज भी प्रमु हैं और वही इनकी लक्ष्मी है, यह सन्नीकी तरह परतीका भोगनरें।" यह सुनकर महलकिरण कहता है, "श्रेष्ठ व्यक्तिसे क्या यह सम्भव है ? वह सुन्दर जलक्रीड़ा कर और तुम्हारे साथ युद्धमें लड़कर ॥१-८॥
घत्ता-अब इस फीकी राज्यश्रीका क्या करना ? अच्छा है कि श्रेष्ठ स्थिरकुलवाली अजर-अमर सिद्धिरूपी बधूका पाणिप्रहण किया जाय ॥२१॥
[4] इन शब्दोंके साथ मुक्त विशुद्धमति माहेश्वर अधिपति सहस्रकिरण अपने पुत्रको अपने स्थानपर स्थापित कर, परिजन, पट्टण और प्रजाको समझाकर निडर वह एक क्षणमें दीक्षित हो गया । रावण भी प्रयाण कर चला गया । तब अयोध्याके प्रधान राजा अणरण्यको लेखपत्र भेजा गया, उसमें मुख्य बात यह कही गयी थी कि दशमुखसे जीवित बचा सहसकिरण तपश्चरणमें स्थित हो गया। यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और थोड़ा-सा विषाद भी उसने प्रदर्शित किया। हजारों युद्धोंमें दुःसह दशरथको समस्त श्री समर्पित कर, राजा अगरण्यने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और उसके दूसरे पुत्र अनन्तरथने १-८॥ .
पत्ता-तच सुकेश और लंकेशने यमगृहके समान यज्ञको नष्ट करने और शत्रुको सन्त्रस्त करने के लिए मगधके लिए कच किया ॥५॥