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पणरहमो संधि
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निकला। उसके अनन्तर नगाड़े सुनाई देने लगे । अनुचरों ने प्रणाम कर सूचित किया, "देख-देख सत्रु आ सका है, युद्ध आ पड़ा है। हथियार लीजिए" ||१८||
घत्ता--यह सुनकर, हाथमें धनुष लेकर वह निशाचरोंके प्रवल समूह के सम्मुख उसी प्रकार स्थित हो गया, जिस प्रकार सिंह महाराज यूथके सम्मुख बैठ जाता है ||२॥
[२] जब वह धनुष लेकर युद्धके लिए तैयार हुआ तो अशेष युवती जन डर गयीं । खिन्न मन उसको राजाने अभय वचन देते हुए कहा, "क्या सहस्रकिरण किसी दूसरेका नाम है ? जब मेरा एक-एक हाथ एक एककी रक्षा करता है तो तुम्हें किस बातका डर है ? तुम भूमण्डप में प्रवेश कर बैठी रहो, जिस प्रकार हथिनियाँ गिरिगुहा में घुसकर बैठ जाती हैं। मैं जो हाथियोंके कुम्भस्थल तोड़गा वे परिवार के लोगों के लिए ऊखल हो जायेंगे, जो मैं प्रवर दाँत रखागा, वे प्रजाके लिए मूसल हो जायेंगे। जो मैं हाथियोंके सिरसे मोती निकालूँगा, वे तुम्हारे लिए हार हो जायेंगे। जो मैं फहराती हुई जाएँ फागा, वे तुम्हारी चोटी बाँधने के लिए सैकड़ों फीतेका काम देंगे" ॥१-८||
घत्ता - इस प्रकार कड़कर उन्हें धीरज बँधाते हुए वह राजा रथवरपर चढ़ गया, मानो युवतियोंके करुणाके कारण, मानो चिना अरुणिमाके सूर्य प्रकट हुआ हो ||१||
[३] इसके अनन्तर योद्धाओंने आक्रमण किया, मानो मत्त गजघटाने सिंहपर हमला बोला हो । यह अकेला है और शत्रुसेना अनेक हैं, फिर भी उसका मुखकमल खिला हुआ है। जय इस प्रकार अक्षात्रभाव के विरुद्ध सहस्रकिरणपर हमला किया गया तो देवताओंमें बातचीत होने लगी, "अरे-अरे, राक्षसोंने बहुत बड़ी अनीति की हैं। यह अकेला, वे बहुत, उसपर
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