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तेरहमी संधि [१०] वह संगीत प्रिय कलत्रकी भाँति अलंकार सहित सुस्वर विदग्ध और सुहावना था, सुरतितत्त्वकी तरह आरोह अवरोह स्थायी और मंचारी भावोंसे परिपूर्ण था। नववधूके ललाटकी तरह तिलक ( टीका, राग ) से सुन्दर था, मेघरहित आसमानकी तरह मन्दतार (तारे, तार ) था, सन्नद्ध सेनाकी तरह लइयताण (त्राण, कवच और तान ) था, धनुषकी तरह सजीउ ( ज्या और जीवन सहित ) प्रसन्न बाण ( तीर और रागविशेष ), था। उस संगीतको सुनकर धरणेन्द्रने अपनी अमोघविजय नामक विद्या रावणको दे दी । इसी बीच सुग्रीवके बड़े भाई बालीको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वह बाहुबलीके समान शुद्ध शरीर हो गया, दूसरे उन्हें धवल छत्र कमलासन के समान भामण्डल उत्पन्न हुए। बहुत दिनोंके अनन्तर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। सुर और असुरोंके लिए भयंकर भेरीके समान रावण इन्द्र के प्रति शत्रुताके भावसे उद्वेलित था ।।१-९||
घत्ता-जिस (इन्द्र)ने युद्ध के सरोवर में प्रवेश करके मालिका सिरकमल तोड़ा, उस दुष्ट इन्द्ररूपी इसके प्रापारूपी पक्ष-युगलको गिराकर रहूँगा ।।१०||
[११] यह सोचकर और युद्धकी भेरी बजवाते हुए रावण तुरन्त चल पड़ा, जो यम-धनद-कनक-बुध-अष्टापद और धरतीको थर-थर कँपा देनेवाला था। रावणके प्रस्थान करते ही निशाचरेन्द्र इस प्रकार निकल पड़े, जैसे मुक्तांकुश हाथी ही निकल पड़े हो । मानसे उन्नत वे अपने-अपने वाहनोंपर सवार थे। दनुको विदीर्ण करनेवाले उनके हाथों में प्रबल प्रहरण थे | सामने पताकाएँ थी और गजघटा टकरा रही थी, ऐसा लगता था कि सुर नन्दीश्वरदीप जा रहे हों। अपने मनमें वैर धारण करनेवाले दशानन पाताल लंकाको पाते ही शत-शत ज्वालाओंकी तरह भड़क उठा। उसने कहा, "तबतक खल, क्षुद्र,