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चउदहमो संधि
२११ और कोयल, महीधरोंके शिखरोंपर, कुसुमोंकी मंजरी रूपी ध्वजाएँ आत्र वृक्षोंपर, दवणरूपी प्रन्थपाल केदार वृक्षों में, वानर रूपी माली शाखा-समूहों में, मधुकररूपी मस्त बाल परागोंमें, सुन्दर ताल लहरोंके आवासोंमें, भोजनक अभिनव फलोंके भोजनगृहोंमें ठहरा दिये गये । इस प्रकार विरहीजनोंको समाते हुए, गजातिले शुभत हुए वसन्तन प्रवेश किया ॥१-८॥
पत्ता-आते हुए वसन्तकी ऋद्धि देखकर मधु, ईख और सुरासबसे मतवाली तथा विद्यल और भोली नभेदारूपी बाला प्रियसे अनुरक्त होकर घूमने लगती है ॥९॥
[३] समुद्रके पास जाते हुए उसने शीघ्र ही अपना प्रसाधन कर लिया । जो उसमें जलके प्रवाहका घवघव शब्द हो रहा है, वहीं उसके न पुरोंकी झंकार है, जितने भी कान्तियुक्त किनारे हैं, वे ही उसके ऊपर ओढ़नेके पर हैं, जो जल खलबल हुआ करता और उछलता है, वही रसनादामकी तरह शोभित है। जो उसमें सुन्दर आवर्त उठते हैं, वे ही उसके शरीरको त्रिबलियोरूपी लहरें हैं। जो उसमें जलगजोंके कुम्भ शोभित हैं, वे ही उसके आधे निकले हुए स्तन हैं, जो फेनसमूह आन्दोलित है, वह उसके हारके समान ही हिलहुल रहा है, जो जलचरोंके युद्धसे रक्तरंजित जल है, वही उसके ताम्बूल के समान है, मदवाले गजोंसे जो उसका पानी मेला हो गया है, वहीं मानो उसने आखोंमें काजल लगा लिया है, जो तरंगें ऊपर-नीचे हो रही है, वह मानो उसकी भौंहोकी भंगिमा है, जो उसमें भ्रमरमाला व्यास है, वह उसने कशावली बाँध रखी है ।।१-११॥
बत्ता-माहेश्वर और लंकाके प्रदीप सहसकिरण और रावणके बीच में जाते हुए और अपना मुंह दिखाते हुए उसने उनको मोह उत्पन्न कर दिया जैसे उन्हें ज्वर चढ़ गया ॥१२॥