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तेरहमो संधि [७] नागराजके भारी भारसे आक्रान्त धरतीसे दशानन पीड़ित हो उठा। उसने ओरसे शब्द किया जिससे दसों दिशाएँ गूंज उठी । रावणके सुन्दर अन्तःपुरने जब वह शब्द सुना तो वह हाहाकार कर उठा। उसके स्तन ऐरावतके कुम्भस्थलके समान थे, वह केयूर हार और नू पुर पहने हुए था, उसके हाणके कंगन खन-वन बज रहे थे. कटिसच रुनझन कर रहे थे, मुखरूपी नील कमलोंके पास भौर मड़रा रहे थे, विश्नम और क्लिाससे उसकी भौंहें टेढ़ी हो रही थीं। ( वह विलाप करने लगी ), "हा, श्रीनिवास दशानन ! दस जीभ, हाथ-पैरवाले हे दशानन ! इन्द्ररूपी मृगोंके लिए सिंह के समान हे दस सिर!" मन्दोदरी कहती है, "हे चारुचित्त आदरणीय, रक्षा कीजिए, जिससे लंकेश्चरके प्राण न जाये ! मुझे अपने पतिकी भिक्षा दीजिए ।" ॥१-५॥
पत्ता-यह करुण वचन सुनकर धरणेन्द्रने धरती उठा दी, वैसे ही जैसे मधा और रोहिणीके उत्तर दिशामें व्याप्त होनेपर मंगल मेघोंको उठा लेता है ।।१०।।
[८] पर्वतके मूलभागसे प्रताड़ित लंकानरेश ऐसे निकला, जैसे महागज सिंह के प्रहारके नखोंकी खरी चपेटसे बच निकला हो, मानो गिरिगुहासे ऐसा सिंह आया हो जिसके अयाल कट गये है और नाखून दूट हो चुके हैं ! मानो पातालसे कछुआ निकला हो जिसने अपना सिर, कर और चरण-युगल पेट में कुण्डलित कर रखा है। कर्कश आघातसे नष्ट हो गया है फन समूह जिसका, ऐसा साँप ही गरुड़के मुँहसे निकला हो। मृगलांछित दूपित और क्षीण तेज चन्द्र ही मानो राहु के मुखसे निकला हो । वह वहाँ गयाः जहाँ गुणालय वाली आतापिनी शिलापर आरूद थे । प्रदक्षिणा करके रावणने वन्दना की और
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