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चस्थ संधि
'किसका राज्य ? किसका भरत ? जैसा समझो वैसा तुम सब मिलकर मेरा कर लो, वह एक चक्रसे ही यह घमण्ड करता है कि मैंने समूची धरती ( महीपीठ ) अधीन कर ली है। नहीं जानता वह कि इससे क्या काम होगा ? समस्त राज्य, किसके पास रहा ? मैं उसे कल ऐसा कर दूँगा कि जिससे उसका सारा दर्प चूर-चूर हो जायेगा ? वह क्या बाबल्ल मल्ल और कर्णिकसे भयंकर तथा मुद्गर भुसुण्डि और पट्टिदासे विशाल होगा ।" यह सुनकर मन्त्री शीघ्र गये और आधे पलमें भरतके पास पहुँचे। जैसा उसने कहा था वैसा उन्होंने सब बता दिया कि हे देव, वह तुम्हें तिनके भी नहीं ॥१॥ पत्ता - शत्रुओं का नाश करनेवाली बहु तुम्हारी आज्ञा नहीं मानता | महनीय वह मानमें परिपूर्ण है । मेदिनीरमण वह सौतेला भाई बलपूर्वक रणपीठ रचकर युद्धके लिए तैयार बैठा है ॥२९॥
[६] यह सुनकर राजा तुरत आगबबूला हो गया, मानो ज्वालामाला से सहित आग ही हो ? उसने शीघ्र प्रस्थानकी मेरी चजवा दी, और सुभद्रशूर वह शीघ्र बेगसे तैयार होने लगा, इतने में चतुरंग सेना उमड़ पड़ी, तब तक अठारह अक्षौहिणी सेना भी आ गयी । चिन्तन करते हो नवनिधियाँ चलने लगी, जो स्यन्दनके रूपमें परिभ्रमण कर रही थीं। महाकाल, काल, माणवक, पण्ड, पद्माक्ष, शंख, पिंगल, प्रचण्ड, नैसर्प ये नौ रत्न और निधियाँ भी ये ही थीं, मानो पुण्यका रहस्य ही नौ भागों में विभक्त होकर स्थित हो गया हो। ऊँचाई में नौ योजन, लम्बाई-चौड़ाई में बारह योजन, गम्भीरता में आठ । जिसके एक हजार यक्ष रक्षक हैं ? कोई वस्त्र, कोई भोजन देती है, कोई रत्न देती है और कोई महरण ( अस्त्र ) लाती है । कोई अश्व और गज, कोई औषधि लाकर रखती है।