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संधि
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धत्ता - भारभर क्षम, भीमतट, ये मेरे विचित्र द्वीप हैं । 'धर्म' की तरह, इनमें से एक चुनकर, हे मित्र, जो अच्छा लगे वह ले लो ॥९॥
श्रीकण्डका सन्धी कहता है, 'बहुत करते क्या, बानर द्वीप ले लीजिए, जिसमें किष्क पहाड़ और स्वर्णभूमि है, जिसमें चमकती हुई महामणियों की बड़ी-बड़ी चट्टानें है । प्रवालों और इन्द्रनीलसे व्याप्त हैं, जिसमें चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्झर बहते हैं, जिसमें मुक्ताफल जलकणोंकी तरह दिखाई देते है, जिसमें देश, एक दूसरेके समान है ? अभिनव कुसुम, पके हुए फल, करमा हैं पत्ते जिनके, ऐसे सुपाड़ीके वृक्ष | जहाँ मीठी द्राक्षा लताएँ हैं, जो देवोंके द्वारा चाही गयी हैं। जहाँ शीतल, तरह-तरह के फूलोंसे मिश्रित और मौरोंसे चुम्बित जल हैं। जहाँ दानोंको प्रदर्शित कर रहे धान्य ऐसे लगते हैं जैसे धरती के हर्षित अंग हों ||१८||
धत्ता - यह सुनकर श्रीकण्ठका मन सन्तुष्ट हो गया । उसने चैत्र माह के पहले दिन उस द्वीपके लिए प्रस्थान किया, उसका यह प्रस्थान देवताओंके समान था || ||
[ ६ ] लवणसमुद्रका जल पार करते ही उसकी सेनाने बानर द्वीप में प्रवेश किया। उसकी पगडण्डियाँ सूर्यकान्तमणिसे आलोकित हैं. आगकी आशंकासे कोई उसपर पैर नहीं रखता । जहाँ गुलोंसे आमोदित बावड़ीको देवोंकी आशंका से मनुष्य नहीं देखते, जिसमें बिना कमलोंके जल नहीं है, और कमल भी बिना भ्रमरोके नहीं हैं, जहाँ बिना आम्रवृक्षोंके वन नहीं हैं आम्रवृक्ष भी बिना मंजरियोंके नहीं हैं। मंजरियाँ भी बिना कोयलॉक नहीं हैं, कोयले भी 'कलकल' ध्वनिके बिना नहीं हैं, जहाँ फल पेड़ोंके बिना नहीं हैं, पेड़ भी लताओंके बिना नहीं हैं, लताएँ भी बिना फूलोंके नहीं हैं, और फूल भी ऐसे नहीं हैं