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धारहमी संधि किया, तुम अम स्वतन्त्र होकर राज्यश्रीका उपभोग करो।" यह कहकर, वह बहाँ शीघ्र चला गया जहाँ कि गगनचन्द नामके गुरु थे। उसने एकनिष्ठासे तपश्चरण ले लिया, उन्हें तरक्षण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी । प्रतिदिन इन्द्रियरूपी शत्रुको जीतते हुए वह वहाँ गये, जहाँ कैलास पर्वत है ॥१-८॥ ___ घत्ता-पाँच महाप्रतोंके धारी यह अष्टापद शिखरपर चढ़ गये और आतापिनी शिलापर इस प्रकार स्थित हो गये जैसे शाश्वतशिलापर स्थित हों ! ॥१॥ __ [१२] यहाँ सुग्रीवने उसकी बहन श्रीप्रभा रावणको दे दी। उसे लेकर वहाँ लंका नगर चला गया। नल और नीलको किष्कपुर भेज दिया गया । ध्रुवा महादेवीके पुत्र शशिकरणको भी उसने अपने आधे राज्यपर स्थापित कर दिया। उस अवसरपर उत्तर श्रेणीका स्वामी ज्वलनसिंह नामक विद्याधर था । उसकी सुतारा नामकी कन्या भी, जिसे सहस्रगति नामक वरने माँगा। परन्तु ज्वलनसिंह गुरुके आदेशसे उसे न देते हुए सुप्रीवसे उसका विवाह कर दिया। विवाह करके कन्या वह अपने घर ले आया, उससे सहस्रगतिको भारी विरहाग्नि उत्पन्न हुई। वह जलता, पीड़ित होता और कसमसाता । उसे न उच्यता अच्छी लगती और न शीतलता । उद्भ्रान्त वह वनमें कहीं चला गया और एकाग्र मन होकर विद्याकी सिद्धि करने लगा ॥१-९||
घत्ता-तबतक धनसे प्रचुर किष्किन्ध नगरमें अंग और अंगद बढ़ने लगे और दोनों ही दिन-रात राज्यका स्वयं उपभोग करते हुए रहने लगे ॥१०॥