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तेरहमो संधि
२०.
धत्ता-"पहले जो तुमने पराभवका ऋण मुझे दिया था, उसे अब कालान्तरमें मैं चुकाता हूँ | पाषाणकी तरह इस कैलासको उखाड़कर समुद्र में फेकता हूँ" ||१०||
[४] ऐसा कहकर, वह शीघ्न बालीके शापके समान नीचे आ गया । मही विदारिणी विद्याके प्रभावसे वह तलको भेदकर भीतर घुसा। अपनी हजार विद्याओंका चिन्तन कर रावणने पहाडको उखाड़ लिया जैसे कुपुत्र प्रसिद्ध सिद्ध प्रशंसाप्राप्त अपने वंशको स्वाड़ दे। अथवा जिस प्रकार पापभारसे झुकते हुए त्रिलोकको जिनवर लखाई देते हैं, अथवा सर्पराजकी तरह सुन्दर है भाल जिसका, ऐसा बालक, धरतीके उदरसे निकला हो; अथवा व्यालोंसे लिपटे पहाड़ोंसे धरती छूट गयीं हो, अथवा चिलबिलाता हुआ साँपोंका समूह हो, अथवा धरतीकी आँतोंकी ढेर विशेष हो। खोदा गया धरतीका गट्टा ऐसा जान पड़ता है, मानो पातालका उदर फाड़ दिया गया हो । पहाड़के हिलते ही चारों समुद्रों में सर्पमुखोंकी तरह भयंकर उथल-पुथल मच गयी ॥१-९॥
पत्ता-जो जल भाग था और जिसका प्रेमी समुद्ने भोग किया था उसे कुकलत्रकी तरह बलपूर्वक पकड़कर पहाड़ ले आया ।।१०।
[५] इन्द्रके महान् ऐरावतकी गुंड़के समान आकारवाली हथेलीसे धरतीको उठानेपर भुजंग भग्न हो गये, उनसे निकलनेवाली उप्र विषकी ज्वालाएँ गुफाओं से लगने लगी, कहीं शिलातल खण्डित हो गये और शैलशिखर स्खलित हो गये, कहीं सूंड उठाकर हाथी भागे, मानो धरतीने अपने हाथ फैला दिये हों, फहीं तोतों की पंक्तियाँ उठी, मानो मरकतके कण्ठे टूट गये हों, कहीं भ्रमरपंक्तियाँ दौड़ रही थीं, मानो