________________
तेरहमो संधि
तेरहवीं सन्धि आदरणीय बालीको देखकर रावण रोषसे भर उठा। (अपने मनमें ) कहता है, "जबतक मैं शत्रुको नहीं कुचलता, मेरे जिन्दा रहनेसे क्या ?" ||१||
[ सियालो लागी जिया जमाती नालीसे विवाह कर जब वह लौट रहा था कि आकाशमें उसका पुष्पक विमान रुक गया, मानो पापकर्मसे दान रुक गया हो, मानो शुक्र नक्षत्रसे मेघजाल स्खलित हो गया हो, मानो वर्षासे कोयलका कलरव, मानो खोदे स्वामीसे कुटुम्बका धन, मानो मच्छने गहाकमलको पकड़ लिया हो, मानो सुमेरु पर्वतने पवनकी गतिको, मानो दानके प्रभावसे नीच भयन । उसकी किंकिणियाँ शब्दशन्य हो गयीं, जैसे सुरति समाप्त होनेपर कामिनी चुपचाप हो जाती है। घण्टियोंने भी घन-घन शब्द छोड़ दिया, मानो मेंढकोंके लिए ग्रीष्मकाल आ गया हो । नरश्रष्ठोंमें काना-फूसी होने लगी ........। बार-बार प्रेरित करनेपर भी विमान नहीं चलता, नहीं चलता, मामो महामुनिके मयसे प्राण नहीं छोड़ता ॥१-९॥
छत्ता-विघटित होता है, थर-थर करता है, परन्तु वह विमान आदरणीय बालीके ऊपर नहीं पहुँचता, वैसे ही जैसे नयी विवाहिता स्त्री अपने प्रौढ़ पति के पास नहीं जाती ॥१०॥
[२] तब, इस बीच रावणने सब दिशाओंमें अवलोकन किया। सब ओर देखनेसे उसे आकाश ऐसा लगा जैसे रक्तकमल हो। फिर वह अचानक क्रुद्ध हो उठा, मानो काल ही क्रुद्ध हुआ हो। उसने कहा, "किसने साँपके मुँहको क्षुब्ध किया है ? किसने अपने सिरपर वाघात चाहा है ? सिंहके मुंहसे