________________
णवमो संधि
पत्ता-राम गुपनों में अनुरा, साप, हुई . विद्याओंसे घिरा हुआ रावण वैसे ही शोभित था, जैसे ताराओं से घिरा हुआ चन्द्रमा | २
[१३] सर्वसहा, धम्भणी, मोहिनी, संवृद्धि और आकाशगामिनी ये पांच विद्याएँ वहाँ पहुँची, जहाँ चलितध्यान कुम्भकर्ण था। सिद्धार्थ, शत्रु-विनिचारिणी, निर्विघ्ना और गगनसंचारिणी ये चार चंचलमन विभीषणके निकट स्थित हो गयों । इसके अनन्तर बहुत-सी विद्याओस अलंकृत और पुण्यमनोरथ रावणने स्वयंप्रभ नामका नगर बसाया, मानो स्वर्गखण्ड ही उतरकर स्थित हो गया हो । उसने एक और चैत्यगृह बनाया, अत्यन्त सुन्दर उसका नाम सहस्रक्रूट था । उसकी ऊँची शिखरें उन्नति करके मानो सूर्यके विम्यको पकड़ना चाहती हैं ॥१-८।।
घत्ता-"रावणके उस वैभवको देखकर परिजनोंका सन्तोष बढ़ गया, वानरों और राक्षसोंकी सेनाएँ आकर मिल गयीं, मानो जलथल मिल गये हों।" ||२|| __ [१४] अपने लोगोंकी उस सेना को देखकर रावणने अबलोकिनी विद्यासं पूछा । उसने भी दशाननको बताया, "हे देव, ये तुम्हारे बन्धुजन हैं।" यह सुनकर राजा बाहर निकला। अपनी हजार विद्याओंसे घिरा हुआ वह ऐसा लग रहा था, मानो कमलिनी-समुहसे प्रवर सरोवर, मानो हजार राशियों से सूर्य । कुम्भकर्ण भी विभीषणके साथ चला, मानो दिवसका तेज सूर्यके साथ मिल गया हो। जैसे ही तीनों कुमार चले वैसे ही चारणोंकी वाणी उछली । रत्नाश्रव बन्धुजनोंके साथ यहाँ पहुँचा। वह नेगर रावण का भवन, मणि योंसे वेष्टितः सह सभाभवन आयी हुई हजार विद्याएँ ।।१-८॥