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एगारहमो संधि
ग्यारहवीं सन्धि पुष्पक विमानमें बैठे हुए रावणने हरिपेण द्वारा निर्मित धवल विशाल जिनमन्दिर देखे जो ऐसे जान पड़ते थे जैसे अलरहित मेघवृन्द हों ॥१॥ _ [१] नब तोयवाहन कुलके दीपक रावणने सुमालिसे पूछा, "अहो तात, चन्द्रमाके समान धवल ये क्या जलमें खिले हुए कमल हैं ? क्या हिमशिखर नष्ट होकर अलग-अलग दिखाई दे ह! क्या नमात्र अपने स्थानसं चूक गये हैं ? क्या मृणाल
साहित धवल कमल किसी दिशाके ऊपर रख दिये गये हैं ? क्या ये एसे भूमिगत मेघ हैं कि जिनका वर्षाके प्रारम्भमें गर्व नष्ट हो गया है ? क्या यहाँ ऐसे कलहंस पसा दिये गये हैं कि जो हजारों मंगल शृंगारांसे युक्त हैं ? क्या कोई अपने यशके सौ-सौ टुकड़े कर उन्हें वापस यहाँ छोड़ गया है ? क्या यहाँ ऐसे सैकड़ों चन्द्र आकर इकट्ठे हैं कि जिन्हें कामिनियोकी मुखकान्तिके सामने नीचा देखना पड़ा है ?" ॥१-८॥ - घत्ता-सुमालि रावणसे कहता है, "लोगोंकी आँखोंको आनन्द देनेवाले और चूनेसे पुते हुए ये हरिषेणके जिनमन्दिर हैं ॥२॥
[२] हरिपेणको अष्टाह्निकाके दिनों में नव निधियाँ और चौदह रत्नोंसे युक्त धरती सिद्ध हुई थी। पहले दिन वह महारथ (यात्रा) के कारण उत्पन्न होनेवाले माँके दुःखको जानकर कहाँ गया। दूसरे दिन वह तापसवन पहुँचा जहाँ उसने मदनावलीकी विरह पीड़ाको स्वीकार किया। तीसरे दिन सिन्धु नगरमें सुप्रसन्न हाथीको वश में कर कन्यारत्न प्राप्त किया। चौथे दिन वेगमतीका अपहरण करते हुए, उसका प्रवेश जयचन्द्र के हृदयमें कराया । पाँचवें दिन गंगाधर