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धारहमो संधि
१९५ [६] जब दूतने जयकारके साथ रावणका नाम लिया उससे थाली केवल अन्यमनस्क होकर और मुँह मोड़कर रह गया । स्वामी दूतके वचनोंपर कान नहीं देता, उसी प्रकार, जिस प्रकार कुलवधू परपुरुषके वचनोंपर । इसके अनन्तर रावणके दूतने समस्त सज्जनोचित आचरण छोड़ते हुए बालीका यह कहते हुए अपमान किया, "जो फोई भी हो, जो नमस्कार करेगा, श्नी उसीकी होगी, या सो तुम इस नगरसे चले जाओ, नहीं तो कल रावणसे युद्धके लिए तैयार रहो।" यह सुनकर क्रोधसे आगबबूला होते हुए सिंहविलम्बितने इसका प्रतिवाद किया, "अरे क्या बालीके विषय में तुमने नहीं सुना जिसने मधु पर्वतको अपनी भुजाओंसे नष्ट कर दिया, जो आधे पलमें सारी धरतीकी परिक्रमा कर, चारों समुद्रोंके चयन का आता ।१-८॥
घसा-युद्ध में इसके स्वाधीन यशसे सारा संसार धवलित है। युद्ध में प्रवृत्त होनेपर उसे रावणको पकड़ना कौन-सी बड़ी बात है ?"
[७] कटुशब्दोंकी तलवारसे आहत वह दूत क्रोध के साथ रावणके पास गया और बोला, "बहुत क्या, मुझसे इतना ही कहा कि बाली तुम्हें तृष्ण बराबर भी नहीं समझता।" यह पचन सुनकर रावण समुद्रके समान गम्भीर स्वर में बोला, "मैं अपने पिता रत्नाश्रय के पैर छूनेसे रहा यदि मैंने युद्ध में उसका मान-मर्दन नहीं किया।" यह प्रतिज्ञा करके वह चल पड़ा मानो कोई क्रूर ग्रह ही विरुद्ध हो उठा हो । वह सुन्दर पुष्प विमानमें ऐसे बैठ गया जैसे सुन्दर शिवालयमें सिद्ध स्थित्त हो जाते हैं। उसने हाथमें चन्द्रहास खडूग ले लिया मानो बादलों में बिजली चमक उठी हो, पुरपरमेश्वरके निकलते ही वीर पलके भीतर निकल पड़े ॥१८॥