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एगायमो संधि
है। तुम लोगोंने मालिके समय, परकुलकी कन्याकी तरह बलात् उसका सेवन किया है। उनपर तुम्हारा पहले ही प्रहार करना उचित था, इस प्रकार हड़बड़ी में जाना उचित नहीं। इसलिए, जिसकी कान्ति क्षीण हो गयी है ऐसे यमराजको सुरसंगीत नगर दे ईमिर जिसका किया जातीचा डामा भोग किया जा चुका है।” रावण भी अक्षरजको यमपुरी और सूर्यरजको किष्किन्धापुरी देकर ॥१-८।।
पत्ता-लका नगरीकी ओर उन्मुख होकर चला । आकाशमें जाता हुआ उसका सुन्दर विमानऐसा लगा मानो समयने तोयदबाइन वंशके दलको एक दीर्घ परम्परामें बाँध दिया हो ।।५।। __ [१४] भयंकर समुद्रके ऊपरसे जाते हुए, अपने ऊर्च शिखामणिकी छायासे प्रान्त रावण पूछता है, और मालि उत्तर देता है। क्या नमतल है ? नहीं नहीं रत्नाकर हैं? क्या सम है या तमालंकार नगर है ? नहीं नहीं, इन्द्रनील मणियोंकी कान्ति है ? क्या ये तोचोंकी पंक्तियाँ है ? नहीं-नहीं, पवनसे आन्दोलित मरकसमणि हैं। क्या ये धरतीपर सूर्यको किरणें पड़ रही है ? नहीं नहीं, ये सूर्यकान्त मणि हैं। क्या यह गीले गण्डस्थलोंवाली गजघटा है ? नहीं-नहीं, ये समुद्र-अलकी लहरें हैं । क्या यह पहाड़ व्यवसायशील हो गया है ? नहीं नहीं, जलमें जलचर घूम रहे हैं ? इस प्रकार बातचीत करते हुए वे लंका नगरी पहुँच गये, जो कि त्रिकूट पर्वतके शिखरपर स्थित थी। द्विजवर मन्दीजन उन्हीं तूाँके शब्दोंके साथ, सभी परितोषके
साथ बाहर आ गये । सभी कह रहे थे, "प्रसन्न होओ, बढ़ो।" | सभी निर्माल्य अर्घपात्र और जल लिये हुए थे ॥१-१०॥
घत्ता-लंकानरेश नगर में प्रविष्ट हुआ। राज्यपट्ट बाँधकर उसका अभिषेक किया गया। जिस प्रकार सुरपुरीमें इन्द्र, उसी प्रकार अपनी नगरीमें राज्यका भोग करता हुआ बह रहने लगा।