________________
दसमी संधि [२] मन्दोदरीको अभय वचन देते हुए, डरकर मयने चन्द्रनखासे पूछा, “यह कौन-सा कुतूहल है, जो अनुरक्तमें नये प्रेमकी तरह फैल रहा है ?" उसने उसर दिया, "क्या तुम यह प्रताप नहीं जानते ? यह, दशाननका प्रभाव हैं ?" यह सुनकर सभी पुलकित होकर एक-दूसरेका मुख देखने लगे। इतने में सैकड़ों अनुचरोंकि साथ, मय के निवासस्थानको देखते हुए रावण आया । उसने पुछा, “यहाँ ठाठ-बाटसे किसे ठहराया गया है ?" तष प्रणाम करते हुए किसी एक नरने कहा, "मय और भारीच कई विद्याधर तुमसे मिलनेकी इच्छासे आये हैं।" यह सुनकर वह जिनवर-भवनमें पहुँचा। वहाँ सन्त्राससे मुक्त जिनकी प्रदक्षिणा और वन्दना की ॥१-८||
घत्ता-फिर सहसा मन्दोदरीने अपनी चंचल भौंहोंवाली दृष्टि से इसे देखा, जैसे वह दूरसे ही नील कमलोंकी मालासे वक्षस्थलमें आहत हो गया हो ।।२।। __ [३] उसने भी सहसा बालाको देखा, मानो भ्रमरोंने अभिनव कुसुममालाको देखा हो। मुखर चंचल नू पुर ऐसे लगते थे मानो चारण मधुर स्वरमें पढ़ रहे हैं। मेखलासे रहित नितम्ब ऐसे दिखाई देते हैं मानो कामदेवके आस्थानका मार्ग हो, धीरे-धीरे चढ़ती हुई रोमावली ऐसी दिखाई देती है, मानो काली बाल नागिन शोभिन हो, शोभा दनेवाले स्तन ऐसे दिखाई देते हैं, मानो हदयोंको भेदनेके लिए हाथी दाँत हो । खिला हुआ मुखकमल ऐसा दिखाई देता है जैसे निःश्वासोंके आमोदमें अनुरक्त भ्रमर उसके पास हों। अनुभूत सुगन्ध उसकी नाक ऐसी मालूम देती है. मानो नेत्रोंके जलके लिए सेतुबन्ध बना दिया गया हो। सिरके बालोंसे आच्छन्न ललाट ऐसा दिखाई देता है मानो जैसे चन्द्रबिम्ब नवजलधरमें निमग्न हो ॥१-८॥