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दसम संधि
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धत्ता --- उसपर उसकी दृष्टि जहाँ भी पड़ती वह वहीं घूमती रहती। दूसरी जगह वह ठहरती ही नहीं। उसी प्रकार जिस प्रकार रसलम्पट मधुकर पंक्ति केतकी को नहीं छोड़ पाती ॥९॥
[४] दशमीव कुमार का मन लेकर इनके अनन्तर, मारीच बोला, "विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में देवसंगीत नगर है । वहाँ हम मय मारीच भाई-भाई हैं । हे रावण, हम विवाह के लिए आये हैं। इसे ले लें, यह नारीरत्न आपके योग्य है । हे देव, उठिए और पाणिग्रहण कीजिए। यही वह मुहूर्त, नक्षत्र और दिन हैं। जो जिन की तरह प्रत्यक्ष और त्रिभुवनश्रेष्ठ हैं । कल्याण, मंगल और लक्ष्मी का निवास है । शिव शान्त सुख मनोरथको पूरा करनेवाला ।" यह सुनकर सन्तुष्ट मन रावणने तत्काल पाणिग्रहण कर लिया, जयसूर्य, धवल, मंगल गीतों, उज्ज्वल स्वर्ण तोरणोंके साथ ||१८||
घता-तत्र वधू और वर नेत्रोंके लिए आनन्ददायक, स्वयंप्रभ नगर में प्रवेश करते हैं, मानो उत्तम राजहंसों का जोड़ा खिले हुए पंकज वनमें प्रवेश कर रहा हो ॥२॥
[५] एक और दिन, महाप्रचण्ड दृढ़ बाहुबाला रावण विद्याका प्रदर्शन करता हुआ वहाँ गया, जहाँ मनुष्योंके कोलाहल से व्याप्त मेघरव नामक विशाल पर्वत था। वहाँ दुनियाकी प्रसिद्ध गन्धर्व बावड़ी थी । उसमें छह हजार गन्धर्व कुमारियाँ प्रतिदिन जलक्रीड़ा करती थीं। रत्नाश्रवका पुत्र वहाँ पहुँचा। उन परमेश्वरियोंने उसे अचानक इस प्रकार देखा जैसे समस्त महासरिताओंने समुद्रको देखा हो, मानो नव कुमुदिनियोंने नव चन्द्रको, मानो कमलिनियोंने बाल दिवाकरको | सबकी सब रक्षकों से घिरी हुई थीं। सभी सब प्रकारके अलंकारोंसे अलंकृत थीं ॥ १-७॥