________________
१५
छट्ठो संधि धर्मसे आभरण और विलेपन, धर्मसे नपासन और भोजन, धर्मसे सुन्दर स्त्रियाँ, धर्मसे चूनेसे घुते सुन्दर घर, धर्मसे पीन स्तनोंवाली वारांगनाएँ सुन्दर चमर डुलाती है। धर्मसे मनुष्यत्व
और देवत्व, बलदेवत्व और थासुदेवत्व । धर्मसे अहन और सिद्ध तीर्थकरत्व और चक्रवर्तित्व ॥१-८॥
पत्ता-एक धर्मके रहनेपर इन्द्र और देवता सेवा करते हैं, जयकि धर्महीन आदमीके घरके आँगनमें चाण्डाल तक नहीं रहते" ||९||
[१५] तद्धित्केशने तब पुनः गुरुसे पूछा, "दूसरे भवमें मैं कौन था, और यह देव क्या था ?' अतिवर बताते हैं, "सुनो, उत्तर दिशामें काशीमें तुमने जन्म लिया था। तुम साधु थे, और यही वहाँ धनुधारी था। यह नरूममें आया जहाँ कि तुम बैठे हुए थे । निम्रन्थ देखकर उसने तुम्हारा मजाक उड़ाया, इससे तुम्हें भी थोड़ी-सी कपाय हो गयी। कापित्थ वर्गके गमनका निदान भंग कर, तुम केवल ज्योतिपभवन में उत्पन्न हुए। वहाँसे आकर, शुद्धमति यह लंकाका नरेश हो। वह धानुष्क भी भवग्रहणमें घूमने-फिरने के बाद, वानर बना । तुमसे आहत, समाधिमरणसे मरकर स्वगमें देव हुआ उदधिकुमारके नामसे" ||१-८||
घत्ता-याह सुनकर लंकानरेशने राज्यमें सुकेदाको स्थापित कर, वास्तव में कुवेश और राज्यश्चीको छोड़ते हुए तपश्रीरूपी वधूका पाणिग्रहण लिया ||२||
[१६] जब तडित्केश निर्मथ हुआ तो उसने पाँच मुट्टियोंसे कैशलोंच किया । कटक, मुकुट और कुण्डल धारण करनेवाले उस उदधिकुमार देवने भी सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। इसके अनन्तर किष्क नगरके राजा कपिध्वज श्रेष्ठके पास लेखपत्र गया। महीमण्डल में पड़ा हुआ वह ऐसा दिखाई दिया जैसे