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सप्तमो संधि
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वह गंगाके प्रवाहकी तरह नावाल (नामोंकी भरमार, और नावोंका घर) हो । विरक्त कुलकी तरह बन्धनसे मुक्त था। खलकी तरह स्वभावमें वक्र था। बाद रावतीजनके समान वर्णको धारण करता है, आचार्यकी तरह चारत और कथा कहता । मानो अझर पंक्तियोंके प्रभुसे कहा गया, "तुम सुकेटाका पालन करना तडित्केशीने तपश्री अपने हाथमें ले ली, हे प्रभु, तुम जैसा ठीक समझो, वह करो" ॥१-८॥
वत्ता-लेख ग्रहण कर उदधिरवने पुत्रको राज्य देकर दीक्षा प्रहण कर ली। नगरमें प्रतिचन्द्र प्रतिष्ठित हुआ और वानर द्वीपका वह खुद उपभोग करने लगा ॥२॥
सातवीं सन्धि प्रतिचन्द्र के दो पुत्र हुए, प्रवरबाहु किष्किन्ध और अन्धक, मानो ऋषभजिनके दो पुत्र, भरत और बाहुबलि हों।
[१] उन दोनोंने शीघ्र ही शरीर सम्पदा { यौषन ) प्राप्त कर ली। उस अवसरपर किसीने यह बात कही-"विजयार्थ पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में धन और स्वर्णसे परिपूर्ण आदित्यनगर है। उसमें विद्यामन्दिर नामका राजा है। सुन्दर वेगमती उसकी अनमहिषी है । श्रीमाला नामकी उसकी कन्या है, जिसकी आँखें नीलकमलके समान और मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान । वह बाला केलेके अंकुरके समान सुकुमार है। वह कल किसीको माला पहनायेगी।" यह सुनकर किष्किन्ध और अन्धक दोनों प्रबल कपिध्वजियोंने जानेकी तैयारी की । विमान निकाल लिये गये । योद्धा उनमें सवार हुए, आकाशमें चलते हुए उनकी शोभा निराली थी। आधे पलमें दक्षिण श्रेणी में पहुँच गये जहाँ समस्त विद्याधर इकट्ठे हुए थे ॥१-८॥