________________
राधि
१४३
धत्ता- तबतक दुश्मन दूर जा चुका था, मृगलीहन अपने मनमें सन्त्रस्त हो उठा। वह सिर चलाता, हाथ धुनता जैसे संक्रान्ति से चूका ब्राह्मण हो ? ||९||
[१२] तब सुरवर इन्द्र जय-जय शब्द के साथ महान् रथनूपुर नगर में प्रवेश करता है। जय जय करते हुए पवन, कुबेर, वरुण, यम, स्कन्ध, नट, वामन, कविवृन्द, हर्षसे भरे हुए सैकड़ों बन्दीजन, विद्याधर, किन्नर, किंपुरुष, ज्योतिषी, यक्ष, गरुड और गन्धर्वकि साथ इन्द्र जाकर सहस्रार के चरणों में उसी प्रकार पड़ गया जिस प्रकार भरतेश्वर त्रिभुवनश्रेष्ठ ऋषभनाथ के चरणों में उसने चन्द्रमा को शशिपुर, विख्यात धनदको लंका, यमको किष्क नगर दिया। वरुणको मेघनगर में स्थापित किया । कुबेरको कंचनपुर में प्रतिष्ठित किया ||१७||
वत्ता- उस समय जो कोई वहाँ था, इन्द्रने उसका आदर किया । एकसे एक प्रवर मण्डलका उसने सबको स्वयं उपभोग कराया ||८||
नौवीं सन्धि
इसके अनन्तर, वैभव से रहते और पाताल लंकाका उपभोग करते हुए सुमालिको रत्नाश्रव नामक पुत्र उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार ऋषभको भरत हुए थे || १||
[१] सोलह प्रकारके अलंकारोंसे शोभित वह ऐसा जान पड़ता जैसे स्वयं कामदेव अवतरित हुआ हो । बहुत दिनों बाद, पितासे पूछकर विद्या सिद्ध करनेके लिए वह पुष्पवनमें गया। उसी अवसरपर गुणोंका अनुरागी व्योमबिन्दु वहाँ