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णवमो संधि पहुँचा। उसने यहाँ रत्नावको देखा। उसे लगा कि ऐसा पुरुषरत्न कहाँ उत्पन्न हुआ? तो गुरुका वचन सच होना चाहता है, यही वह नर है और यही वह पुष्पवन है। तब उसने खिले हुए कमलोंके समान मुखवाली अपनी कैकशी नामकी पुत्रीसे कहा, "हे पुत्री, यह तुम्हारा पति है उसी प्रकार, जिस प्रकार मानस सुन्दरीका साहस्रार" ॥२-८॥
पत्ता-वह कन्या वहीं छोड़कर अपने घर चला गया, इधर रत्नाश्रयको भी विद्या सिद्ध हो गयी। वह दोनों परमेश्वरियों के बीचमें ऐसे स्थित था, जैसे ताप्ती और नर्मदा नदियोंक बीच में विन्ध्याचल ॥९॥ [२] यधूको रत्नाको दस प्रकार केला,
सिरहद अपनी अप्रमद्विषीको देखता है। अच्छे नितम्बों और गोल स्तनोंबाली उसकी आँखें इन्दीवरके समान और मुख कमलकी तरह था । ( वह पूछता है), "तुम किसकी ? और कहाँ उत्पन्न हुई ? तुम्हारी दृष्टि दूरसे ही मुझे सुख दे रही है ।” यह सुनकर कन्या शंकाके स्वरमें कहती है, "यदि जानते हैं क्योमविन्दु राजा को। मैं उसकी कन्या हूँ, अभी किसीने मेरा वरण नहीं किया है, मैं कैकशी नामकी विद्याधरी हूँ । गुरुके वचनसे मुझे इस वनमें लाया गया, तुम्हारे करमें मेरा पाणिग्रहण दे दिया गया है।'' यह सुनकर उस पुरुषश्रेष्ठने एक विद्याधर नगर उत्पन्न किया । सब बन्धुजनों को वहीं बुलवा लिया, और कन्याके साथ विवाह कर लिया ॥१-८ii
पत्ता-बहुत समय बाद उसने सपना देखा, और दरबारमें राजासे कहा, "हाथीका गण्डस्थल फाड़कर एक सिंह उदरमें घुस गया है मेरे ॥९॥
[३] कटिवल ( उच्चोलि ) में चन्द्र और सूर्य स्थित हैं।" यह सुनकर प्रिय मुसकरा उठा । अष्टांग निमित्तोंके जानकार
विवाह समबन्धुजनोंका पुरुषश्रेष्ठने एक पाणिमहण