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अट्ठमो संधि
१३९ इस समय निश्चित रूपसे काल आया" यह सुनकर, लम्बी हैं बाँहें जिसकी ऐसे मालिने क्रोधसे भरकर वायब, वारुण और आग्नेय अस्त्र छोड़े। वे तीनों ही व्यर्थ गये, उसी प्रकार, जिस प्रकार अज्ञानीके कानों में जिनवचन, जिस प्रकार गोठबस्तीके
आँगनमें उत्तम मणिरत्न, जिस प्रकार अकुलीन व्यक्तिमें सैकड़ों अपकार, जिस प्रकार चरित्रहीन व्यक्तिमें व्रत | प्रभंजन प्रभंजनसे, बायु वायुसे और अग्नि अग्निसे जा मिला। इसपर इन्द्र हँसा, "अरे मानब, क्या देवके समान दानब हो सकते हैं ? ॥१-८|
पत्ता-मालि काहता है, "तुम कौन देव, तुम्हारा प्रबल बल मैंने पूरा देख लिया है, जो तुम बाँधते हो, फिर उसीको हटा लेरो हो, तुमने केवल इन्जाट का ॥५॥ __[२] यह वचन सुनकर इन्द्रने तीरसे मालिको मस्तकमें आहत कर दिया। तब नरेन्द्रने शीघ्र उस तीरको निकाल लिया, जैसे महाराज श्रेष्ठ अंकुशको निकाल ले। मस्तकमें सहसा रक्त की धारासे लाल वह ऐसा दिखा जैसे सिन्दूरसे विभूषित मैंगल हाथी हो ? जल्दी-जल्दीमें घारपर बायाँ हाथ रखकर मालिने इन्द्रको शझिसे ललाटमें आहत कर दिया। वह विकलोग होकर धरतीपर गिर पड़ा। राक्षस और वानरकी सेनाओंमें कोलाहल होने लगा। सुमालिने मालिको साधुवाद दिया कि तुम्हारे होनेसे ही अपने वंशका उद्धार हुआ। सहस्राक्षने उठकर शीश चक्र छोड़ा, आते हुए उसे राक्षस नहीं रोक सका । वह चक्र उसके सिरपर होते हुए धरतीपर जा पड़ा, किसी तरह कछुए की पीठसे जाकर नहीं टकराया ॥१-८॥
पत्ता-मुत्र अपना घमण्ड नहीं भूला । रोषसे भरा कबन्ध दौड़ रहा था । दो बार उसने ऐरावतके कुम्भस्थल पर तलवार चलायी ॥५॥