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ससमो संधि
१२५ था, वह तो यमको दाड़ोंके भीतर भेज दिया गया है।" यह सुनकर विद्युद्वाहनने प्रयत्न छोड़ दिया। शीघ्र ही उसने अपने देशका एकछत्र प्रसाधन सहा लिया ॥३॥
यत्ता-निर्यातको लंका और दूसरोंको दूसरे-दूसरे नगर दिये जिन्हें वे, यौवनवती स्त्रियोंकी तरह भोगने लगे |९||
[१०] किष्किन्ध और सुकेटाके नगरोंका अपहरण कर, तथा दूसरे विद्याधरोंको अपने अधीन यना, बहुत दिनोंके बाद मेघपटलोंको देखकर अपने भाई विजयसिंहके दुःखको याद कर, विचुद्वाहन विरक्त हो गया। कुमार सहस्रारको राज्य देकर उसने अपना परलोकका काम साधा। बहुत समयके अनन्तर किष्किन्धराज भी मेरु पर्वतपर वन्दना-भक्तिके लिए गया । वह नरश्रेष्ठ वापस लौटा, इतने में उसे मधु नामक विशाल महीधर दिखाई दिया, जो अपने प्रदीर्घ नेत्रोंसे ऐसा लगता था कि जैसे देख रहा है, कमलाकरोंके मुखोंसे ऐसा लगता था कि जैसे हँस रहा है, भ्रमर और मधुकरियोंके स्वरोंसे ऐसा लगता था जैसे गा रहा है, निर्मल पानीके झरनोंसे ऐसा लगता था जैसे स्नान कर रहा है, लतागृहोंसे ऐसा लगता था जैसे विश्वस्त कर रहा है, फूलों और फलोंके गुरुभारसे ऐसा लग रहा है, मानो प्रणाम कर रहा है ॥१-८॥
घत्ता-उस पर्वतको देखकर उसने अपनी प्रमुख प्रजाको बुलवा लिया। किष्किन्धने वहाँ किष्किन्ध नामका नगर बसाया ॥९॥
[११] तबसे मधुमहीधर भी किष्किन्धके नामसे जाना जाने लगा। उसके ऋक्षरज पुत्र उत्पन्न हुआ। उससे छोटा, दूसरा एक और सूररज हुआ, वैसे ही जैसे भरतेश्वरका छोटा भाई बाहुबलि । यहाँ सुकेशके भी तीन पुत्र हुए, श्रीमालि, सुमालि और माल्यवन्त । प्रौढ़ युवक होनेपर उन्होंने अपने पितासे पूछा,