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चतस्यो संधि
तरह अपमानित होकर शीघ्र ही लौट आयी। उसके वक्षस्थल पर जलके तुषार धवल कण ऐसे मालूम हो रहे थे मानो आकाशमें प्रचुर तारा समूह हो! फिर बादमें बाहुबलीश्वरने जलकी धारा छोड़ी, मानो चंचल निर्मल तरंग ही हो, भानो आकाशगंगा ही संचारित कर दी गयी हो ॥१-८)
धत्ता-भरतेश्वर हट गया । भारी लहरले आक्रान्त वह अपना कायरमुख लेकर रह गया, उसी प्रकार जिस प्रकार, कामकी घोडासे व्यथित, विराहकी ज्वालासे भग्न खोटा संन्यासी ॥२॥
[११] जब भरत जलयुद्ध नहीं जीत सका तो उसने शीघ्र ही मल्लयुद्ध प्रारम्भ किया। कसकर लंगोट पहने हुए दोनों ही बलमें महान् थे, अखाड़े में जैसे मल्लोंने प्रवेश किया हो, ताल ठोकते हुए उन्होंने आक्रमण किया, मानो सुबन्त तिकुन्त शब्द आपस में भिड़ गये हो । बाहुबलिने बहुबन्ध, दुक्कुर, कर्तरी, विज्ञान करण और भामरीके द्वारा, भरतके साथ खूब देर तक व्यायाम कर, फिर यादमें अपनी शक्तिका प्रदर्शन किया। दोनों हाथोंसे नरेन्द्रको उठा लिया जैसे इन्द्रने जन्मके समय जिनवरको उठा लिया था। इसके अनन्तर देवोंने बाहुबलीश्वरके ऊपर कुसुम वृष्टि की । सेनामें कोलाहल होने लगा। विजयकी घोषणा कर दी गयी । नरनाथ अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥१-८||
धत्ता-भरतने रत्नका चिन्तन किया और उसे बाहुबलिके ऊपर छोड़ा, घरम शरीरी वह, उससे बच गये, (ऐसा लग रहा था), जैसे अपनी प्रसरित किरण समूहसे युक्त दिनकरने मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा की हो ॥२॥ ___[१२] जब चक्रेश्वरने चक्र छोड़ा, तब बाहुबलीश्वरने सोचा कि मैं प्रभुको आज धरती पर गिरा दूं, नहीं नहीं, मुझे धिक्कार है, मैं राज्य छोड़ देता हूँ। राज्यके लिए अनुचित किया जाता