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पक्षमो संधि
कषाय है, इसीलिए प्रत्रज्या टेनेके बाद भी वे केवलज्ञान नहीं पा सके ॥९॥
[१४] यह वषन सुनकर भरत वहाँ गया जहाँ आदरणीय बाहुबलि अचल स्थित थे। उनके घरणोंमें साग गिरकर, उन्होंने कहा, "धरती तुम्हारी है, मैं तुम्हारा दास हूँ।" जबतक भरत यह निवेदन करता है और क्षमा माँगता है, तबतक बाहुबलिके चार घातिया कर्म नष्ट हो गये। उन्हें विमल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। आधे क्षणमें ही उनकी देह दुग्धधरल हो गयी। पद्मासन अलंकार श्वेतचमर एक भामण्डल और प्रवर छन्न उत्पन्न हो गये । सहसा देवसमूह वहाँ आ गया क्योंकि तीर्थकरके पुत्र बाहुबलि केवली हुए थे। थोड़े ही दिनों में त्रिभुवनके शत्रुने चार घातिया कर्मका नाश कर दिया। और इस प्रकार, आठ कर्मोके बन्धनसे विमुक्त होकर सिद्ध हो गये और सिद्धालय में जा पहुँचे ॥१-८॥
घत्ता-ऋषभनाथ भी शाश्वत स्थान निर्वाण चले गये। भरतेश्वरको भी वैराग्य हो गया । दनुके लिए दुझि अयोध्या नगरीमें अर्ककौति प्रतिष्ठित हुआ। यह स्वयं राज्यका भोग करने लगा ॥२॥
पाँचवीं सन्धि गौतम स्वामी कहते हैं, "श्रेणिक, तीनों लोकोंमें प्रशंसा पानेवाले राक्षस एवं वानर वंशकी उत्पत्ति सुनो।"