________________
परमो संधि वंचित है, ऐसी तीस परमयोजन विस्तारवाली लंकानगरी, मैंने तुम्हें दी। हे सोयदवाहन, एक और भी एक द्वार और छह योजनबाली पाताललंका लो।" इस प्रकार भीम और महाभीमके आदेशसे मनमें सन्तुष्ट होकर उसने प्रस्थान किया। विमलकीर्ति और विमलवाहन मन्त्रियों वथा दूसरे सामन्तोंसे घिरे हुए ॥२-८॥ - घत्ता-तोयदवाइनने लंकापुरीमें प्रवेश किया, और अविचल रूपसे राज्य में इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गया जैसे राक्षसवंशका पहला अंकुर फूटा हो।
[९] बहुत दिनों बाद सेना और शक्ति से सम्पन्न होकर वह अजितनाथकी वन्दना भक्ति करनेके लिए गया । जैसे ही यह समवसरणमें प्रवेश करता है वैसे ही सगर यहाँ आता है। वह भगवानसे पूछता है, "हे स्वामी, आनेवाले समयमें, आपके समान वय गुणवाले अतिकान्त कितने तीर्थकर होंगे?" यह सुनकर कामका विदारण करनेवाले आदरणीय परम जिन मागध भाषामें कहते हैं, "मेरे समान-केवलज्ञानसे सम्पूर्ण एक ही ऋषभ भट्टारक हुए हैं, तुम्हारे समान छह खण्ड धरती का स्वामी नराधिप भरत, एक ही हुआ है। तुम्हें छोड़कर दस राजा और होंगे, मेरे बिना बाईस तीर्थकर और होंगे। नौ पलदेव और नौ नारायण, ग्यारह शिव, और नौ प्रतिनारायण । और भी उनसठ, पुराणपुरुष जिनशासनमें होंगे ॥१-१०॥
पत्ता-तब तोयदवाहन भावविभोर हो उठा और एक सौ दस लोगोंके साथ भरतकी तरह दीक्षित हो गया ।।१।।
[१०] प्रतिपक्षका नाश करनेवाले अपने पुत्र महारक्षको उसने लंकानगरी दे दी । बहुत समय होनेके बाद आदरणीय अजित जिन शाश्वत स्थान निर्वाण चले गये। रत्नों और निधियोंका परिपालन, और समस्त धरतीका उपभोग करते हुए