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पनमो संधि
[१४] उन्होंने भीमसे कहा, "तुम राज्यमें दृढ़ होओ मैं अब अपने कामके लिए जाता हूँ।" तब उसने कहा कि मैं भी परम्परा भग्न नहीं करूँगा, आपने इसे वेश्या कहा है, मैं इसका भोग नहीं फलंगा? सगरने भीमको लोन लिया. और भगीरथको चुलाया, उसे धरती दी, और आसन पर बैठाया, और स्वयं भरतके समान प्रत्रजित हो गया । तप करके उसने निर्वाण प्राप्त किया। यहाँ पर प्रतिपक्षका नाश करनेवाले और राज्य करते हुए उस महारक्षके देवरक्ष पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा एक दिन उपवनमें गया । त्रियोंसे घिरा हुआ वह, जब क्रीडापापिकामें नहा रहा था ( जैसे हाथी अपनी इथिनियोंके साथ नहा रहा हो) कि उस समय उसकी दृष्टि, कमलके भीतरके मरे हुए भ्रमर पर पड़ी ॥१-८!!
घत्ता-उसने सोचा, "जिस प्रकार रसलम्पट यह भ्रमर निश्चेष्ट है उसी प्रकार कामिनीके मुखमें आसक्त सभी कामीजनों की यही स्थिति होती है" ॥९॥
[१५] जैसे ही उसे अपने मनमें विषाद हुआ, वैसे ही वहाँ एक श्रमण संघ आया। उसमें सभी ऋषि त्रिकाल योगेश्वर थे। महाकषि व्याख्याता वादी और वागीश्वर थे। सभी शत्रु और मित्रमें समभाव रखनेवाले, और तृण और स्वर्णको समान रूपसे छोड़नेवाले, सभी सूखे पसीने और मलसे युक्त शरीरवाले,
और धैर्य में महीधरके समान थे। सभी अपने तपके तेजसे दिनकरकी तरह थे और गम्भीरतामें समुद्र की तरह। सभी धीर-वीर तपसे तपे हुए थे और समस्त परिग्रहको छोड़नेवाले थे। सभी कर्मबन्धका विध्वंस करनेवाले और सभी, सभी जीवों को अभयवचन देनेवाले थे। सभी परमागमोंके जानकार और कायक्लेशमें एकसे एक बढ़कर थे ।।१-८॥