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रथो संधि
हैं, भाई, बाप और पुत्र को मार दिया जाता है। इससे क्या, मैं मोक्षकी साधना करूँगा ? जहाँ अनन्त और अचल सुख प्राप्त होता है । बहुत देर तक मनमें यह विचार करनेके बाद बाहुबलिने नराधिपको बच्चेकी भाँति रख दिया और कहा, "हे भाई, तुम मेरी धरतीका भी उपभोग करो, हे राजन् ! सोमप्रभ भी आपकी सेवा करेगा।" इस प्रकार उन्हें अच्छी तरह निःशल्य कर, जिनगुरु कहकर, पाँच मुट्ठियोंसे केश लोंच करके वह स्थित हो गये, एक वर्ष तक अवलम्बित कर, सुमेरु पर्वतकी तरह अकस्पित और अविचल ||१८||
घसा - बड़ी-बड़ी लताओं, साँपों, बिलुओं और वामियोंने उन्हें अच्छी तरह घेर लिया, मानो संसार की भीतियोंने ही, कामको नष्ट करनेवाले, परम आदरणीय बाहुबलिको एक क्षणके लिए न छोड़ा हो ||२९||
[१३] इसके अनन्तर केवलज्ञान है बाहु जिनका, ऐसे ऋषभनाथ कैलास पर्वत पर प्रतिष्ठित हुए । त्रिलोकके पितामह और जगत्पिता का, समवशरण, गण और प्रातिहार्य के साथ। थोड़े ही दिनों के बाद, भरतेश्वर भी उनकी वन्दनाभक्ति करने के लिए आया । गुरुके सम्मुख स्तोत्र पढ़ता हुआ ऐसा शोभित हो रहा था, मानो परलोकके मूलमें इहलोक हो। दस प्रकारके धर्मका पालन करनेवाले उनकी बन्दना कर, फिर उसने त्रिभुवन स्वामिश्रेष्ठसे पूछा, "हे आदरणीय, शुभनिधान बाहुबलिको किस कारण आज भी केवलज्ञान नहीं हो रहा है ?" यह सुनकर परमेश्वरने दिव्यभाषामें कहा - "आज भी ईपत् ईर्ष्या कपाय उनके मन में है कि जो उन्होंने तुम्हारी धरती पर निवास कर रखा है ॥१-८॥
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धत्ता - जब मैंने अपनी धरती भरतको समर्पित कर दी, तय मैंने अपने पैरोंसे उसकी धरती क्यों चाप रखी है ? उनमें यह