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चउरथो संधि
६५ गये मन्त्री तुरन्त गये। और आधे निमिपमें पोदनपुरमें पहुँच गये। आदर करके बाहुबलिने पूछा-"किसलिए आगमन किया।' उन्होंने भी वे वचन सुना दिये, "तुम कौन, और भरत कौन ? दोनों में कोई भेद नहीं हैं तो भी जाकर उससे तुम्हें मिलना चाहिए, जिस प्रकार दूसरे अहानवे भाई हैं, जो उसकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम अभिमान छोड़कर राजाकी सेवा अंगीकार कर जिओ" ||१८||
पत्ता-भयभीषण बाहुबलिने यह सुनकर भरतके दूतोंको अपमानित करते हुए कहा, "एक बापकी आज्ञा, और एक उनकी धरती, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती ? ।।९।।
[४] "प्रवास करते हुए परम जिनेश्वरने जो कुछ भी विभाजन करलो हिगा है, वही हमारा सम्बन्धिान मत हैं। मैंने किसीके साथ, कुछ भी बुरा नहीं किया, मैं उसी धरतीका स्वामी हूँ। न मैं लेता हूँ न देता हूँ और न उसके पास जाता हूँ। उससे भेंट करनेसे कौन काम होगा? क्या मैं उसकी कृपासे राज्य करता हूँ, क्या उसकी ताकतसे मैं दुर्निवार हूँ ? क्या उसकी ताकतसे मेरा पुरुषार्थ है ? क्या उसकी ताकतसे मेरी प्रजा है ? क्या उसकी ताकतसे मैं सम्पत्तिका भोग करता हूँ ?" इस प्रकार जब पोदनपुरनरेश बाहुबलि गरजा, तो भरतके मन्त्रियोंका क्रोध भड़क उठा, उन्होंने उसका तिरस्कार किया ॥१-८॥
घत्ता-"यद्यपि यह भूमिमण्डल तुम्हें पिताके द्वारा दिया गया है, परन्तु इसका एकमात्र फल बहुचिन्ता है, बिना कर दिये, ग्राम, सीमा, खल और क्षेत्र तो क्या ? सरसोंके यराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है" [१९॥
[५] यह वचन सुनकर प्रलम्बबाहु बाहुबलि क्रुद्ध हो उठा मानो सूर्य और चन्द्र पर राहु ही कुपित हुआ हो । (वह वोला),