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ओ संधि
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[ ३ ] जिन्होंने अपना स्वभाव और चारित्र सिद्ध कर लिया है, जो नौतीस अतिशयोंसे युक्त हैं, और जिन्होंने कर्मरूपी रजको धो दिया है, ऐसे परम जिन स्थित हो गये, मानो मेघरहित चन्द्रमा ही हो। और भी उन्हें पुण्य पवित्र और पापोंका नाश करनेवाला धवल सिंहासन उत्पन्न हुआ। दूसरे स्थानपर किसलय और कुसुमोंको ऋद्धिसे परिपूर्ण अशोक वृक्ष उत्पन्न हुआ, एक दूसरी ओर, करोड़ों सूर्योके प्रतापसे समुज्ज्वल भामण्डल प्रसन्न हुआ। दूसरी ओर, अपना माथा झुकाये और हाथ में चमर लिये हुए चामरेन्द्र देष खड़े थे । एक ओर, तीनों लोकोंको धवल करते हुए दण्डयुक्त तीन छत्र उत्पन्न हुए, एक ओर देवदुन्दुभि बज रही थी, मानो पूर्णिमाके दिन समुद्र गर्जन कर रहा हो, एक ओर दिव्यध्वनि खिर रही थी, दूसरी ओर कर्मरज ध्वस्त हो रही थी, एक ओर पुष्प वृष्टि सुवासित हो रही थी तो दूसरी ओर उन्हें आठ प्रातिहार्य उत्पन्न हुए, मानो पुण्यका समूह हो आकर उपस्थित हो गया हो ॥१-१०॥
पत्ता - ये चिह्न जिसको सिद्ध हो जाते हैं और जो परको अपने समान समझता है, प्रहमण्डल और त्रिभुवनमें वही परमात्मा देव है ॥११॥
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[ ४ ] बारह योजनकी समस्त धरती सुन्दर और स्वर्णमय थी । देवों द्वारा निर्मित समवसरण था, जिसमें चार विशाओंमैं चार उद्यान- वन थे | तीन स्वर्ण-परकोटे थे। बारह कोठे और सोलह चावड़ियाँ चार मानस्तम्भ स्थित थे । स्वर्णतोरणा समूह था । स्वर्णजड़ित चार गोपुर थे । उनमें नौ-नौ धूनियाँ लगी हुई थीं। इस ध्वज थे जिनमें कमल, मयूर, पंचानन, गरुड़, हंस, वृषभ, ऐरावत, दुकूल, चक्र और छत्र अंकित थे। प्रत्येक ध्वजमें अभिनव कान्तिबाली एक सौ आठ चित्र