________________
भसंधि
वन, फल-फूलोंसे समृद्ध थे। उसमें पुष्करणियाँ, नत्र पंकज, सरोवर, जलाशय, बावड़ी, तालाब और लतागृह थे। अपनी लम्बी सूँड़से जलकण फेंकता हुआ ऐरावत गरजने लगा । जिसे, सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ कतारमें खड़े होकर चमरोंसे हवा कर रहीं थीं, ऐसा इन्द्र नगमें प्रसन होकर, जय और दुन्दुभिके निर्घोषके साथ हाथीपर बड़ा | चन्दीजन और वामन स्तुतिपाठ पढ़ रहे थे। दण्डधारी जन प्रणाम कर रहे थे । इन्द्रकी उस ऋद्धिको देखकर कितने ही लोग विमुख हो दुःख मनाने लगे ॥१- १०।।
धत्ता - मलको हरनेवाला तपश्चरण करके किस दिन हम मरेंगे, और दुर्लभ जनप्रिय इन्द्रत्व प्राप्त करेंगे || ११||
[७] इतने में, सुरों और असुरोंके विमान नीचे आ गये, मानो वे स्वर्गरूपी वृक्षके फल थे, जो जिनवर के पुण्यकी हवा से आहत होकर नीचे आ गये। महनीय वे एक दूसरेको धक्का देते हुए मानुषोत्तर पर्वत के शिखरपर जा पहुँचे । तब अपना हाथ उठाकर इन्द्र कहता है, “ऊँचे आसनपर बैठना ठीक नहीं, जिन्हें विक्रियाशक्तिसे जो-जो रूप प्राप्त हैं उन्हें तुरन्त छोड़ दो।" इन्दके आदेश से, जो देव पहले जिस रूपमें थे वे वापस उसी रूपमें स्थित हो गये । वे नाना विमानों और यानोंसे वहाँ पहुँचे जहाँ समवसरणमें परम जिन थे। सबने दूर से ही उन्हें माथा झुकाकर प्रणाम किया, सबके हाथों की अंजलियाँ बँधी हुई थीं। सभी जयजयकार कर रहे थे। सभी सैकड़ों स्तोत्र पढ़ रहे थे। सभी अपना परिचय दे रहे थे, अपना नाम गोत्र और निकाय बताते हुए ॥१-२॥
घत्ता — देवताओंके उस जमघटके अवसरपर तेजपिण्ड जिन ऐसे शोभित थे, जैसे आकाशके प्रांगण में तारागणों के बीच पूर्णचन्द्र हो | ॥१०॥