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विईमो संधि एककी चाकरी दूसरा करता है।" यह बात उसके लिए वैराग्य का कारण हो गयी । तभी लौकान्तिक देवोंने आकर परमजिनको प्रतियोधित किया, "हे देव, बहुत सुन्दर जो आप स्वयं मोहसे विरक्त हो गये। निन्यानव कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त समयसे धर्मशास्त्र और परम्परा नष्ट हो चुकी हैं, दर्शन, ज्ञान और चारित्र नष्ट हो गये हैं, दान-ध्यान-संयम और सम्यक्त्व ना हो गया है, पाँच महानत, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाश्रत नष्ट हो चुके हैं, नियम, शील और सहस्रों उपवास नष्ट हो मुझे, अन अप होने से शव होंगे | --!!
घचा-इतनेमें चारों निकायोंके देव विमानों में आरूढ़ होकर आ गये, मानो जिन भगवान के लिए यह बुलावा आया हो कि आपके बिना मोक्ष सूना है ।।२।।
[११] तब सुरश्रेष्ठ आदरणीय जिन जय-जय शब्दके साथ शिषिका यानमें चढ़े । देवोंने कन्धा देकर उसे उठा लिया और पलभरमें वे सिद्धार्थ उपवन में पहुँच गये । उस उपवनके थोड़ी दूर स्थित होकर, भरत के हाथमें राज्यलक्ष्मी देकर, परमसिद्धोंको नमस्कार करते हुए 'प्रयाग' (उपवन) में उन्होंने तुरत संन्यास ग्रहण कर लिया। पाँच मुट्टियों में भरकर, बाल ले लिये और स्वर्णपटलके ऊपर रख दिये। जनोंके मन और . नेत्रोंको आनन्द देनेवाले सुरेन्द्र ने उन्हें लेकर क्षीरसमुद्र में डाल दिया । स्नेहसे प्रेरित होकर चार हजार राजाओंने भी उनके साथ प्रत्रज्या ग्रहण कर ली। जिस प्रकार चन्द्रमा ग्रहसमूहसे घिरा रहता है, उसी प्रकार नवदीक्षित राजाओंसे घिरे हुए परमजिन आधे वर्ष तक कायोत्सगमें स्थित रहे ॥१-८॥
पत्ता-ऋषभ जिनकी हवामें उड़ती हुई विशाल जटाएँ ऐसी लगती थीं मानो जलती हुई आगकी धूमाकुल ज्वालमाला हो ॥२॥