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लिईभी संधि
श्रेणीमें स्थित हो गया ॥२॥
[१६] उस अवसर पर, अपने हाथ ऊँचे किये हुए त्रिभुवननाथ ऋषभ जिन, धरती पर विहार करने लगे। कोई उनके पास, सौन्दर्य और रंगसे युक्त अपनी कन्याको सजाकर लाता है । कोई वस्त्र, कोई चंचल अश्व, कोई रत्न, और कोई मद विहल गज | कोई चाँदी की थालियाँ और स्वर्ण । कोई बहुत-सा धन धान्य । कोई अमूल्य आवरण होकर लाता है। परन्तु परम आदरणीय उनकी ओर देखते तक नहीं। सबको धूलिके समान मानते हुए वह हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। वहाँ विमोहने स्वप्न देखा (स्मृतिमें देखा) "उसने अपने परिवारसे कहा है कि आज कामदेवका नाश करनेवाले आये हैं और मैंने उन्हें पारणा (आहार) करायी है । मैंने इक्षु-रसकी जितनी अंजली भरी घरमें उतनी ही रत्नवृष्टि हुई। इतने में चारों दिशाओमें लोग छा गये, सचमुच जिनभगवान उसके द्वार आ चुके थे ।।१...१०॥
घत्ता---'ठहरिये' कहता हुआ वह निकला, और अपनी खी पुत्र और परिजनोंके साथ उसने तीन प्रदक्षिणा दी, जैसे तारागण मन्दराचलको देते हैं ।।१।।
[१७] वन्दनाकर, वह उन्हें घरके भीतर ले आया । उनके चरण कमलोंका प्रक्षालन किया । और दूध दहीसे उन्हें धोया, जलकी धारा दी और चन्दन लगाया । पुष्प अक्षत नैवेद्य दीप
और फिर धूप जल चढ़ाया। श्रेयांस कुमारने हाथोंका प्रक्षालन कराकर, चन्द्रमाके समान भंगारसे ताजे गन्नेके रससे उनकी अंजलि भरी ही थी कि देवाने पुष्पांजलि की वर्षा की। साधुकार, और देव-दुन्दुभियोंका स्वर गूंज उठा, सुगन्धित हवा चलने लगी, रत्नोंकी वर्षा होती रही, बारह करोड़ बत्तीस लाख अठारह रत्न बरसे ! श्रेयांसके दानको अक्षयदान मानकर