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विईओ संधि 1 [१४] सुर श्रेष्ठ है, यदि कुतर नहीं दे. तो भी आदरणीय एक बार बोल तो लें, दूसरोंको तो देश विभक्त करके दे दिया,
स्वामी, हमारे प्रति आप अनुदार क्यों हैं ? दूसरोंको आपने रंगम और गजवर दिये हैं, हे परमेश्वर हमने क्या किया है ? सरोंको आपने उत्तम वेश दिये हैं, परन्तु हमसे बात करने में मी सन्देह है ? इस प्रकार वे जप जिनवरकी निन्दा कर रहे थे कि तभी धरणेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ, अवधिज्ञानसे सब जानकर, परिवारके साथ आधे पलमें वहाँ आया, जहाँ आदरणीय परमजिन थे। दोनों ( नमि और विनमि ) के बीच, परमेश्वरको धरणेन्द्र ने इस प्रकार देखा, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमाके बीच में मन्दराचल हो। तुरन्त तीन प्रदक्षिणा देकर, जिनवरकी वन्दना भक्ति कर ||१-८||
पत्ता-धरणेन्द्रने पूछा, "तुमलोग अपने दोनों हाथ ऊपरफर, हाथ में तलवार लेकर, किसलिए यहाँ बैठे हो" |||
[१५] यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया, "हम दोनोंको देशान्तर भेजा गया था। लेकिन जबतक हम वहाँ पहुँचे और वापस आयें, तबतक अपने पुत्रोंको धरती देकर, यह हमारी उपेक्षा कर यहाँ स्थित हैं।" यह सुनकर, हँसते हुए (इस रहा है, मुखचन्द्र जिसका ऐसे) धरणेन्द्रने उन्हें दो विद्याएँ दी, और कहा, तुम दोनों विजयाध पर्वतकी उत्तर-दक्षिण श्रेणियों के प्रमुख राजा बन जाओ ।' यह सुनकर नमि-विनमि बोले, "दूसरोंके द्वारा दी गयी पृथ्वी हमें नहीं चाहिए, यदि वास्तवमें परम जिन (निर्गन्थ ) अपने हाथसे दें तो हम ले लें।' यह सुनकर और उन दोनोंकी ओर देखकर धरणेन्द्र, उनके सामने मुनिवरका रूप धारण कर बैठ गया ॥१-८॥
चत्वा-उसने हाथ ऊँचा कर दिया ('हाँ' कर दी) वे दोनों भी विद्या लेकर चल दिये। एक उत्तर श्रेणी और दूसरा दक्षिण